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*दादू कर्त्ता हम नहीं, कर्त्ता औरै कोइ ।*
*कर्त्ता है सो करेगा, तूं जनि कर्त्ता होइ ॥*
(#श्रीदादूवाणी ~विश्वास का अंग)
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(२)
*प्रेमाभक्ति और श्रीवृन्दावनलीला । अवतार तथा नरलीला*
भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण जरा विश्राम कर रहे हैं । बड़े दिन की छुट्टी लग गयी है । कलकत्ते से सुरेन्द्र, राम आदि भक्तगण धीरे धीरे आ रहे हैं ।दिन के एक बजे का समय होगा । मणि अकेले झाऊतल्ले में टहल रहे हैं । इसी समय रेलिंग के पास खड़े होकर हरीश उच्च स्वर से मणि को पुकारकर कह रहे हैं – “आपको बुलाते हैं, शिव संहिता पढ़ी जायगी ।
शिवसंहिता में योग की बातें हैं – षट्चक्रों की बात है ।
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मणि श्रीरामकृष्ण के कमरे में आकर प्रणाम करके बैठे । श्रीरामकृष्ण छोटे तख्त पर तथा भक्तगण जमीन पर बैठे हुए हैं । इस समय शिवसंहिता का पाठ नहीं हुआ । श्रीरामकृष्ण स्वयं ही बातचीत कर रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण – गोपियों की प्रेमाभक्ति थी । प्रेमाभक्ति में दो बातें रहती हैं । - ‘अहंता’ और ‘ममता’ । यदि मैं श्रीकृष्ण की सेवा न करूँ तो उनकी तबियत बिगड़ जाएगी – यह अहंता है । इसमें ईश्वरबोध नहीं रहता ।
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“ममता है ‘मेरा मेरा’ करना । गोपियों की ममता इतनी बढ़ी हुई थी कि कहीं पैरों में जरासी चोट न लग जाय, इएलिए उनका सूक्ष्मशरीर श्रीकृष्ण के श्रीचरणों के नीचे रहता था ।
“यशोदा ने कहा, ‘तुम्हारे चिन्तामणि श्रीकृष्ण को मैं नहीं जानती । - मेरा तो वह गोपाल ही है ।’ उधर गोपियाँ भी कहती हैं, ‘कहाँ हैं मेरे प्राणवल्लभ – हृदयवल्लभ’ ईश्वरबोध उनमें नहीं था ।
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“जैसे छोटे छोटे लड़के, मैंने देखा है, कहते हैं, ‘मेरे बाबा’ । यदि कोई कहता है, ‘नहीं, तेरे बाबा नहीं हैं’ तो वे कहते हैं, ‘क्यों नहीं – मेरे बाबा तो हैं ।’
“नरलीला करते समय अवतारी पुरुषों को ठीक आदमी की तरह आचरण करना पड़ता है, - इसीलिए उन्हें पहचानना मुश्किल हो जाता है । नररूप धारण किया है तो प्राकृत नारों की तरह ही आचरण करेंगे । वही भूख-प्यास, रोग-शोक, वही भय – सब प्रकृत मनुष्यों की तरह । श्रीरामचन्द्र सीताजी के वियोग में रोए थे । गोपाल ने नन्द की जूतियाँ सिर पर ढोयी थीं – पीढ़ा ढोया था ।
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“थियेटर में साधु बनते हैं तो साधुओं का-सा ही व्यवहार करते हैं – जो राजा बनता है, उसकी तरह व्यवहार नहीं करते । जो कुछ बनते हैं वैसा ही अभिनय भी करते हैं ।
“कोई बहुरुपिया साधु बना था, - त्यागी साधु । श्वाँग उसने ठीक बनाकर दिखलाया था, इसलिए बाबुओं ने उसे एक रुपया देना चाह । उसने न लिया, ‘ऊँहूँ’ कहकर चला गया । देह और हाथ-पैर धोकर अपने सहज स्वरूप में जब आया तब उसने रुपया माँगा । बाबुओं ने कहा, ‘अभी तो तुमने कहा, रुपया न लेंगे और चले गए, अब रुपया लेने कैसे आए ?’ उसने कहा, ‘तब मैं साधु बना हुआ था, उस समय रुपया कैसे ले सकता था !’
“इसी तरह ईश्वर जब मनुष्य बनतें हैं, तब ठीक मनुष्य की तरह व्यवहार करते हैं ।
“वृन्दावन जाने पर कितने ही लीला के स्थान दीख पड़ते हैं ।”
(क्रमशः)

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