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*मूर्ति घड़ी पाषाण की, किया सिरजनहार ।*
*दादू साच सूझै नहीं, यों डूबा संसार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*भ्रम विध्वंस का अंग १३५*
इस अंग में भ्रम नष्ट करने वाले विचार कह रहे हैं ~
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हाथ घड़े को पूजिये, मोल लिये की मान१ ।
रज्जब अघड़ अमोल की, खलक खबर नहिं जान ॥१॥
अज्ञान वश लोग हाथ से घड़े हुये देव को पूजते हैं और मूल्य देकर लाई हुई धातु मुर्ति को मानते१ हैं, सांसारिक प्राणी बिना घड़े हुये और अमूल्य परब्रह्म के वृत्तांत को नहीं जानते ।
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मूये वच्छ सम प्रतिमा, पशु प्राणी सब भोल ।
रज्जब ब्रह्म न बैल का, मूल न पावै मोल ॥२॥
मूर्ति मरे हुये बछड़े के समान है, सब प्राणी गाय पशु के समान भोले हैं । जैसे गाय मरे हुये बछड़े को देखकर दूध दे देती है, वैसे ही भोले प्राणी मूर्ति से संतुष्ट हो जाते है किंतु वह मरा हुआ बछड़ा बैल के मूल्य को नहीं पाता, वैसे ही मूर्ति किंचित भी ब्रह्म की समता नहीं कर सकती ।
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क्वारी कन्या सब रम१ हिं, गुदड़२ गुडी अज्ञान ।
त्यों रज्जब भोले भगत, भूले जल पाषान ॥३॥
कुमारी कन्या अज्ञान है तब तक कपड़े की गूंथी२ हुई गुड्डी से खेलती१ है, वैसे ही भोले भक्त जल-पाषाण में भूले हुये हैं ।
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पाणी पाहण१ पूजतों, कौण पहूंच्या पार ।
रज्जब बूडे धार में, इहिं खोटे व्यवहार ॥४॥
जल और पत्थर१ को पूजने से संसार के पार कौन गया है ? इस सदोस व्यवहार से तो संसार सरिता के विषय जल की धारा में ही डूबते हैं ।
(क्रमशः)

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