सोमवार, 4 जनवरी 2021

*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ६१/६४*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ६१/६४*
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अगम निगम संग्या५ सबद६, रांम भगति निज संधि ।
कहि जगजीवन रांम मंहि, तेतीसौं जन बंधि ॥६१॥
{५-६. संग्या सबद=वेद पुराणोक्त संज्ञा(नाम) वाचक शब्द}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जितने भी आने जाने व संज्ञा, व शब्द है । वे सब रामभक्ति से जुड़े हैं सभी तैंतीस कोटि जीव प्रभु से सम्बद्ध हैं ।
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कहि जगजीवन रांमजी, तेज पुंज सब साज ।
क्रिपा दया हरि महर करि, उत्तम करि ल्यौ आज ॥६२॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि हे प्रभु आप ही तेज पुंज हैं जो सब कुछ करते हैं । हे प्रभु आप दया कृपा मेहर सब करें आज यही प्रार्थना है ।
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देही मांहि बिदेह हरि, हरि मंहि देह बिदेह ।
कहि जगजीवन रांम मिलि, यों रस रांम सनेह ॥६३॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह में ही विदेह अर्थात जो शरीर से परे हैं विदेह प्रभु रहते हैं । और प्रभु राम मिलने का आनंद अभेद करता है उससे ही यह देह है ।
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किंचित७ मन मैं कामना, तन लग काची बात ।
कहि जगजीवन नांम नां, नौ खंड प्रिथ्वी तात७ ॥६४॥
(७=७. साधक के मन में जब तक कुछ भी सांसारिक वासनाएँ अवशिष्ट हैं, तब तक उसका 'साधक' कहलाना मिथ्या ही है ॥६४॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन में किंचित भी कामना हो तो मन ईश्वर के प्रति दृढ नहीं होता पूरी पृथ्वी सहित सब कुछ स्मरण में ही समाहित है ।
(क्रमशः)

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