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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“षष्टमोल्लास” १००/१०३)
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*राणीयों ने कहा राजन आप के साथ हमारा जीवन सुधरा*
*रांम रांम सौं लय लगावे,*
*किति यक दादू दादू ध्यावे ।*
*किति यक कहै धन्य तुम राजा,*
*लार तुम्हारी सुधर्यों काजा ॥१००॥*
कोई राम राम में अपनी वृति ध्यान लगा रही थी, तो कोई दादू दादू बोलकर ध्यान लगा रही थी । कोई कोई कहती थी राजन् तुमको धन्य है तुम्हारे साथ संयोग होने से हमारा भी मुक्ति रूप कार्य सुधर गया है अर्थात् हमारा भी कल्याण हो जायेगा ॥१००॥
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*सलेमपुर के आरणि मांहीं,*
*करि प्रणाम तहां सो जांही ।*
*कथा कीरतन कीजै ध्यांन,*
*जोति हि जोति मिलाये प्रांन ॥१०१॥*
फिर दादूजी महाराज को सत्यराम प्रणाम कर सब राणियां सलेमपुर के जंगल में चली गई । वहां पर कुछ समय कथा करने व श्रवण में, कुछ समय नाम संकीर्तन, कुछ समय ध्यान आदि साधनों को करते हुये ब्रह्म ज्योति में आत्म ज्योति मिलाने के लिये प्राण प्रण से प्रयत्न करने लगी ॥१०१॥
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*सुख सागर में झूलैं सबही,*
*हरष सोक नहीं व्यापे कबही ।*
*भेदी ब्रह्म सौ देखै नैन,*
*मिले निरंजन पायो चेन ॥१०२॥*
उक्त प्रकार साधन करते हुये वे सब राणियां सुख सागर में झूलने लगी अर्थात् राम चिंतन का आनंद लेने लगी । अब उनके मन में अनुकूलता से हर्ष नहीं होता था और प्रतिकूलता से शोक नहीं होता था । वे सब निर्द्वन्द्व हो गई थी । वे ब्रह्म तत्व की ज्ञाता हो गई थी । अपने ज्ञान नैत्रों से निरंजन राम को देखकर अपनी आत्मा को निर्विकल्प स्थिति में परमात्मा ब्रह्म में मिलाकर ब्रह्मानंद प्राप्त कर रही थी ॥१०२॥
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*श्री दादू जी के ब्रह्म ज्ञान से ब्रह्म में लीन*
*पदमसिंघ सब राणियां, कीनों ब्रह्म विलास ।*
*पाला ढुलि सलिता चली, किया जलधि मंहिवास ॥१०३॥*
राजा पदमसिंघ और उसकी सब राणियां ब्रह्मानंद प्राप्त करने में लग गई, जैसे हिमालय का हिम बर्फ पिघलकर नदियों द्वारा समुद्र में जा मिलता है, वैसे ही राजा और राणियां जीवत्व अहंकार गलाकर ज्ञान द्वारा ब्रह्म में मिल गये थे । मिलना ही चाहिये था, उच्च कोटि के संतों के संग का फल यही होता है श्री दादूजी तो अवतार रूप थे ॥१०३॥
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इति श्री पदमसिंघ स्वामी देवी संग्राम रणवास स्वामी नाम वर्णन
॥ षष्टमोल्लास संपूर्ण ॥६॥
(क्रमशः)
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