शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

*ईश्वर दर्शन के उपाय*

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*राम राइ ! मोको अचरज आवै,*
*तेरा पार न कोई पावै ॥*
*ब्रह्मादिक सनकादिक नारद, नेति नेति जे गावै ।*
*शरण तुम्हारी रहै निशवासर, तिनको तूँ न लखावै ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ पद्यांश. ३११)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*परिच्छेद ६३ ~ ईश्वर दर्शन के उपाय* 
(१)
श्रीरामकृष्ण मणि के साथ पश्चिमवाले गोल बरामदे में बैठे हैं । सामने दक्षिणवाहिनी भागीरथी है । पास ही कनेर, बेला, जूही, गुलाब, कृष्णचूड़ा आदि अनेक प्रकार के फूले हुए पेड़ हैं । दिन के दस बजे होंगे ।
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आज रविवार, अगहन की कृष्णा द्वितीया है – १६ दिसम्बर १८८३ ।
श्रीरामकृष्ण मणि को देख रहे हैं और गा रहे हैं-
(भावार्थ) – “माँ तारा, मुझे तारना होगा, मैं शरणागत हूँ । पिंजड़े के पक्षी जैसी मेरी दशा हो रही है । मैंने असंख्य अपराध किए हैं । मैं ज्ञानहीन हूँ । मैं माया में मोहित हुआ व्यर्थ भटकता फिर रहा हूँ । बछड़ा खो जाने पर गाय की जो दशा होती है, वही दशा मेरी भी है ।”
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*सीता की तरह व्याकुलता* 
श्रीरामकृष्ण – क्यों ? – पिंजड़े की चिड़िया की तरह क्यों होंगे ? छिः !”
कहते ही कहते भावावेश में आ गए । शरीर, मन सब स्थिर है; आँखों से धारा बह चली है ।
कुछ देर बाद कह रहे हैं, “माँ, सीता की तरह कर दो । बिलकुल सब भूल गयी हैं – देह का ख्याल नहीं; हाथ, पैर, स्तन, योनि – किसी का होश नहीं ! एकमात्र चिंता- ‘राम कहाँ !’
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किस तरह व्याकुल होने पर ईश्वरलाभ होता है, मणि को इसकी शिक्षा देने के लिए ही मानो श्रीरामकृष्ण के मन में सीता का उद्दीपन हुआ था । सीता राममयजीविता थीं, - श्रीरामचन्द्र की चिन्ता में ही वे पागल हो रही थीं, - इतनी प्रिय वस्तु जो देह है उसे भी वे भूल गयी थीं ! 
दिन के तीसरे प्रहर के चार बजे का समय है । श्रीरामकृष्ण भक्तों के साथ उसी कमरे में बैठे हुए हैं । 
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जनाई के मुखर्जीबाबू आए हुए हैं, - ये श्री प्राणकृष्ण के आत्मीय हैं । उनके साथ एक शास्त्रज्ञ ब्राह्म मित्र हैं । मणि, राखाल, लाटू, हरीश, योगीन्द्रादिभक्त भी हैं । 
योगीन्द्र दक्षिणेश्वर के सावर्ण चौधरियों के यहाँ के हैं । ये आजकल प्रायः रोज दिन ढलने पर श्रीरामकृष्ण के दर्शन करने आते हैं और रात को चले जाते हैं । योगीन्द्र ने अभी विवाह नहीं किया ।
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मुखर्जी(प्रणाम करके) – आपके दर्शन से बड़ा आनन्द हुआ ।
श्रीरामकृष्ण - वे सभी के भीतर हैं, वही सोना सब के भीतर है, कहीं प्रकाश अधिक है । संसार में उस सोने पर बहुत मिट्टी पड़ी रहती है ।
मुखर्जी(सहास्य) – महाराज, ऐहिक और पारमार्थिक में अन्तर क्या है ?
श्रीरामकृष्ण – साधना के समय ‘नेति’ ‘नेति’ करके त्याग करना पड़ता है । उन्हें पा लेने पर समझ में आता है, सब कुछ वही हुए हैं ।
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“जब श्रीरामचन्द्र को वैराग्य हुआ, तब दशरथ को बड़ी चिन्ता हुई । वे वशिष्ठजी की शरण में गए, जिससे राम संसार का त्याग न करें । वशिष्ठजी ने श्रीरामचन्द्र के पास जाकर देखा, वे विमनस्क हुए बैठे हैं – अन्तर तीव्र वैराग्य से भरा हुआ है । वशिष्ठजी ने कहा, ‘राम, तुम संसार का त्याग क्यों करोगे ? संसार क्या कोई उनसे अलग वस्तु है ? मेरे साथ विचार करो ।’ राम ने देखा, संसार भी उसी परब्रह्म से हुआ है, इसलिए चुपचाप बैठे रहे ।
(क्रमशः)

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