सोमवार, 4 जनवरी 2021

काल का अंग २५ - ४/७

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ४/७)
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*जहाँ जहाँ दादू पग धरै, तहाँ काल का फंध ।*
*सर ऊपर सांधे खड़ा, अजहुँ न चेते अंध ॥४॥* 
मन विषय वासना से प्रेरित होकर जिस-जिस विषय पर आरुढ़ होता है वहीं-वहीँ पर उस विषय की आसक्ति से बंध जाता है । अन्त समय में उन्हीं विषयों का चिन्तन करता हुआ कालग्रस्त होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है । फिर भी यह अज्ञानी जीव परमात्मा का विचार नहीं करता और न इन विषयों से सावधान होता है । 
महाभारत राजधर्म में- “यह सारा संसार काल सागर में डूब रहा है । जिस सागर में जरा और मृत्यु तो ग्राह है, बुढ़ापा से वेष्टित हैं दिन रात आने जाने वाले हैं । फिर भी यह जीव क्यों नहीं चेतता ?
जब मुझे यह ज्ञान है कि मृत्यु क्षण भर भी नहीं ठहरती तो फिर मैं मृत्यु की क्यों प्रतीक्षा करूं और जब दिन रात के द्वारा आयु अल्प होती जा रही हैं तो फिर पानी के सूख जाने से मछली को उस तालाब में सुख नहीं होता इसी प्रकार इस संसार में मृत्यु ग्रस्त प्राणी को सुख कहां है ?”
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*दादू काल गिरासन का कहै, काल रहित कह सोइ ।*
*काल रहित सुमिरण सदा, बिना गिरासन होइ ॥५॥*
जो कालग्रस्त होता है उसकी कथा से क्या लाभ है । क्योंकि उसकी कथा के श्रवण से मोक्ष तो मिलता नहीं । काल रहित परमात्मा की कथा से तो मुक्ति प्राप्त होती है । अतः जो साधक काल रहित परमात्मा का सतत स्मरण करता है वह काल से मुक्त होकर ब्रह्म भाव को प्राप्त हो जाता है ।
महाभारत में- हे सर्प ! पृथिवी तथा स्वर्गलोक में जितने भी स्थावर जंगम पदार्थ हैं, वे सभी काल में अधीन है । यह सारा जगत् ही काल का स्वरूप है । हे पन्नग ! सूर्य, चन्द्रमा, जल, वायु, इन्द्र, अग्नि, आकाश, प्रथ्वी, मित्र, वसु, अदिति, नदी, समुद्र तथा भाव अभाव ये सभी कल के द्वारा ही रचे जाते है और काल ही इनका संहार कर देता है । अतः काल रहित तो एक परमात्मा ही है उसी का स्मरण करो ।
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*दादू मरिये राम बिन, जीजे राम सँभाल ।*
*अमृत पीवै आत्मा, यों साधू बंचै काल ॥६॥*
राम भजन के बिना जन्तु बार-बार मरता है । अतः राम भजन करके अपने जीवन को सफल बनाओ । क्योंकि सन्त राम भजन रूपी अमृत रस का पान करके काल से मुक्त हो गये ।
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*दादू यहु घट काचा जल भरा, बिनशत्त नाहीं बार ।*
*यहु घट फूटा जल गया, समझत नहीं गँवार ॥७॥*
यह शरीर क्षणभंगुर है । इसके नष्ट होने पर इसमें रहने वाले प्राण भी बाहर निकल जाते हैं । जैसे घट के फूट जाने पर उसमें रहने वाला जल भी नष्ट हो जाता है । किन्तु अज्ञानी इस शरीर की क्षणभंगुरता को नहीं जानता । इस शरीर को संसार मात्र का उपलक्षण समझना । 
योग वासिष्ठ में- कालरात्रि के ताण्डव का वर्णन करते हुए लिख रहे हैं कि- अनन्त कोटि अतीत तथा अनागत प्रलय ही जिस का शरीर है । जब वह कालरात्रि नृत्य करती है तो ब्रह्मादि देवता तथा असुर अपने अपने अधिकार के सहित गिरते हुए दिखते हैं । जैसे वायु में घूमता हुआ मच्छर और बादलों में चमकती हुई बिजली में स्थिरता का लवलेश भी नहीं है फिर भी स्स्थिरता के विलास से आते जाते रहते हैं । ऐसे ही यह विश्व भी क्षण भंगुर होने से आता जाता रहता है । अतः इस काल से बचने के लिये भगवान् का भजन करना चाहिये । 
(क्रमशः)

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