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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ७७/८०*
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अंन उदिक१ रांमहि अरपि, छप्पन भोग विलास ।
सकल समरपन कीजिये, सु कहि जगजीवनदास१ ॥७७॥
(१-१. अंन उदिक=भोजन पाणी । इस साषी को पुराने दादूपंथी सन्त भोजन से पूर्व 'परचै सेवा आरती' के साथ बोलते हैं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि अन्न जल छप्पन प्रकार के भोज्य पदार्थ जो भी जीव को चलाने का माध्यम हैं, सब प्रभु को समर्पित करें ।
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कहि जगजीवन रांमजी, अथ अथाह२ अविगत ।
अरथ भगति अम्रित स्त्रवै, भाइ मिले जन रत ॥७८॥
{२. अथाह=अगाध(गम्भीर)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु जी का स्वरूप अपार है जिसकी कोइ थाह नहीं पा सकता वह सब भक्ति से पूर्ण होता है और कामना करते हैं कि प्रभु इन सब में रत जन से ही भ्राता रुप में मेल करवायें ।
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भोग भोगावै भोगतां, भगति संजीवनि भाइ ।
कहि जगजीवन आन भख, फीके लागै ताहि ॥७९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भक्ति रुपी संजीवनी वटी पास हो तो कैसे ही कर्मभोग हो, भोगे जायेंगे, ये भोगानंद भक्ति के आनंद के बाद सब फीके लगते हैं ।
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कहि जगजीवन वो लखै, जे घर आवै आज ।
तेन्ही तेन्हाँ सोंपतां, सर आवै सब काज ॥८०॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मेरे मन रुपी घर में आकर ही प्रभु मेरी दशा देख सकते हैं मैं उनका उन्हें ही सौंप दूं तो मेरा सब मनोरथ पूर्ण हो जाये ।
(क्रमशः)

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