बुधवार, 6 जनवरी 2021

*जीवनोद्देश्य – ईश्वरदर्शन*

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*दादू बिगसि बिगसि दर्शन करै,* 
*पुलकि पुलकि रस पान ।* 
*मगन गलित माता रहै, अरस परस मिलि प्राण ॥* 
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)* 
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद) 
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ 
परिच्छेद ६४ 
*जीवनोद्देश्य – ईश्वरदर्शन* 

दूसरे दिन सोमवार, १७ दिसम्बर १८८३, सबेरे आठ बजे का समय होगा । श्रीरामकृष्ण उसी कमरे में बैठे हुए हैं । राखाल, लाटू आदि भक्त भी हैं । मणि फर्श पर बैठे हैं । मधु डाक्टर भी आये हुए हैं । वे श्रीरामकृष्ण के पास उसी छोटी खाट पर बैठे हैं । मधु डाक्टर वयोवृद्ध हैं – श्रीरामकृष्ण को कोई बीमारी होने पर प्रायः ये आकर देख जाया करते हैं । स्वभाव के बड़े रसिक हैं । 
श्रीरामकृष्ण – बात है सच्चिदानन्द पर प्रेम । कैसा प्रेम ? – ईश्वर को किस तरह प्यार करना चाहिए ? 
गौरी पण्डित कहता था, राम को जानना हो तो सीता की तरह होना चाहिए । भगवान् को जानने के लिए भगवती की तरह होना चाहिए । भगवती ने शिव के लिए जैसी कठोर तपस्या की थी, वैसी ही तपस्या करनी चाहिए । पुरुष को जानने का अभिप्राय हो तो प्रकृतिभाव का आश्रय लेना पड़ता है – सखीभाव, दासीभाव, मातृभाव । 
“मैंने सीतामूर्ति के दर्शन किए थे । देखा, सब मन राम में ही लगा हुआ है । योनि, हाथ, पैर, कपड़े-लत्ते, किसी पर दृष्टि नहीं है । मानो जीवन ही राममय है – राम के बिना रहे, राम को बिना पाए, जी नहीं सकती ।” 
मणि – जी हाँ, जैसे पगली ! 
श्रीरामकृष्ण – उन्मादिनी ! – अहा ! ईश्वर को प्राप्त करना हो तो पागल होना पड़ता है । 
“कामिनी-कांचन पर मन के रहने से नहीं होता । कामिनी के साथ रमण – इसमें क्या सुख है? ईश्वरदर्शन होने पर रमण सुख से करोड़ गुना आनन्द होता है । गौरी कहता था, महाभाव होने पर शरीर के सब छिद्र – रोमकूप भी – महायोनि हो जाते हैं । एक-एक छिद्र में आत्मा के साथ आत्मा का रमण-सुख होता है ! 
“व्याकुल होकर उन्हें पुकारना चाहिए । गुरु के श्रीमुख से सुन लेना चाहिए कि वे क्या करने से मिलेंगे । 
“गुरु तभी मार्ग बतला सकेंगे जब वे स्वयं पूर्णज्ञानी होंगे । पूर्णज्ञान होने पर वासना चली जाती है । पाँच वर्ष के बालक का-सा स्वभाव हो जाता है । दत्तात्रेय और जड़भरत, ये बालस्वभाव के थे ।” 
मणि – जी हाँ, इनके बारे में लोगों को ज्ञात है, पर इनके अलावा और भी कितने ही ज्ञानी इनकी तरह के हो गए होंगे । 
श्रीरामकृष्ण – हाँ, ज्ञानी की सब वासना चली जाती है । - जो कुछ रह जाती है, उसमें कोई हानि नहीं होती । पारस पत्थर के छू जाने पर तलवार सोने की हो जाती है, फिर उस तलवार से हिंसा का काम नहीं होता । इसी तरह ज्ञानी में कामक्रोध का आकार मात्र रहता है, - नाममात्र – उससे कोई अनर्थ नहीं होता । 
मणि – आप जैसा कहा करते हैं, ज्ञानी तीनों गुणों से परे हो जाता है । सत्त्व, रज, और तम – किसी गुण के वश में वह नहीं रहता । ये तीनों गुण डकैत हैं ।
श्रीरामकृष्ण – इस बात की धारणा करनी चाहिए । 
मणि – पूर्णज्ञानी संसार में शायद तीन-चार मनुष्यों से अधिक न होंगे । 
श्रीरामकृष्ण – क्यों ? पश्चिम के मठों में तो बहुत से साधुसंन्यासी दीख पड़ते हैं । 
मणि – जी, इस तरह का संन्यासी तो मैं भी हो जाऊँ ! 
इस बात पर श्रीरामकृष्ण कुछ देर तक मणि की ओर देखते रहे । 
श्रीरामकृष्ण(मणि से) – क्या ? सब त्यागकर ? 
मणि – माया के बिना गए क्या होगा ? माया को जीत न पाया तो केवल संन्यासी होकर क्या होगा ? 
सब लोग कुछ समय तक चुप रहे । 
(क्रमशः)

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