🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
*दादू सोधी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात ।*
*जान कहावैं बापुड़े, आवध लिए हाथ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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स्वांग दिखावा जगत का, कीया उदर उपाव१ ।
जन रज्जब जग को ठगै, करि करि भेष बणाव२ ॥१३३॥
भेष लोगों को दिखाने के लिये है तथा पेट भरने का उपाय१ किया गया है, स्वार्थी लोग भेष बना२ कर जगत के भोले लोगों को ठगते हैं ।
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ज्यों घुण काष्ठ में खुशी, गज बाहैं१ शिर धुरि ।
त्यों रज्जब माला तिलक, पशू करै नहिं दूरि ॥१३४॥
जैसे घुण काष्ट में प्रसन्न रहता है, हाथी अपने शिर पर धूल डाल१ कर प्रसन्न होता है वैसे ही पशु तुल्य भेषधारी माला तिलकादि भेष को दूर नहीं करते, उसी में प्रसन्न रहते हैं ।
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माँणस१ माँडे२ मोर से, दीसै दुनी३ अनेक ।
रज्जब रत४ रंकार सौं, सो कोउ विरला एक ॥१३५॥
मोर के समान चित्रित२ मनुष्य१ तो संसार३ में बहुत दिखाई देते हैं किंतु राम मंत्र के बीज "राँ" के निरन्तर चिन्तन में अनुरक्त४ हो वह कोई विरला एक ही मिलेगा ।
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स्वांग१ स्वांग सारे कहै, यथा कजलिये२ राति ।
रज्जब कढ हि रूप बहु, आप डूम की जाति ॥१३६॥
जैसे स्वांग बनाने वाले तथा बहुरूपिये२ तथा रात्रि में स्वांग निकालने वाले बहुत ही स्वांग निकलते हैं, वैसे ही सब लोग नाना स्वांग बनाकर स्वयं डूम की जाति के समान बन जाते हैं और दूसरों को भी कहते हैं - भेष१ धारण करो ।
(क्रमशः)
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