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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४३९ - फरोदस्त ताल
राम की राती भई माती,
लोक वेद विधि निषेध,
भागे सब भ्रम भेद,
अमृत रस पीवै ॥टेक॥
भागे सब काल झाल,
छूटे सब जग जँजाल ।
विसरे सब हाल चाल,
हरि की सुधि पाई ॥१॥
प्राण पवन तहां जाइ,
अगम निगम मिले आइ,
प्रेम मगन रहे समाइ,
विलसै वपु नाहीं ॥२॥
परम नूर परम तेज,
परम पुँज परम सेज,
परम ज्योति परम हेज,
सुन्दरि सुख पावै ॥३॥
परम पुरुष परम रास,
परम लाल सुख विलास,
परम मँगल दादू दास,
पीव सौं मिल खेलै ॥४॥
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हमारी बुद्धि राम की भक्ति में अनुरक्त होकर मस्त हो गई है । अब लोक लाज और वेद के विधि निषेध रूप विहित सकाम कर्म तथा निषिद्ध कर्मों का करना हमने छोड़ दिया है । भ्रम जन्य सभी भेद हमारे हृदय से भाग गये हैं । केवल अभेद चिन्तन रूप अमृत - रस ही हम सदा पान करते हैं ।
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काल की ज्वाला रूप काम - क्रोधादिक सभी आसुरी गुण अन्त:करण से भाग गये हैं । यम - जाल रूप जगत् के कपट पूर्ण सभी व्यवहार छूट गये हैं । सँसारी प्राणियों के वृत्तान्त हम भूल गये हैं और हरि की स्मरण - भक्ति प्राप्त की है ।
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प्राण - वायु सहस्रार में जाकर जहां स्थित होता है, वहां आकर के हम वेद से भी अगम ब्रह्म से मिले हैं । उनके प्रेम में निमग्न होकर वृत्ति द्वारा उन्हीं में समा रहे हैं । शरीराध्यास पूर्वक विषयों का उपभोग नहीं करते ।
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उन ब्रह्म का रूप और प्रताप उत्कृष्ट है, वे उत्कृष्टता की राशि हैं । उनकी हृदय, शय्या श्रेष्ठ है । उनका स्वरूप प्रकाश अति उत्कृष्ट है । उनसे अत्यँत प्रेम करके हमारी मति सुन्दरी सुख पा रही है ।
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उन परम प्रिय परम पुरुष स्वामी के साथ मिलकर हम दास, अभेद भावना रूप रास खेलते हुये, परमानन्द का उपभोग कर रहे हैं । इस प्रकार हमारे यहां परम मँगल हो रहा है ।
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४३६ - ४३९ के ४ पद वाणी रूप मंदिर के कलश हैं ।
(क्रमशः)
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