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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
*कोरा कलश अवाह का, ऊपरि चित्र अनेक ।*
*क्या कीजे दादू वस्तु बिन, ऐसे नाना भेष ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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भेष भाडली१ देखकर, मृग माला२ मन जाँहिं ।
रज्जब रीते३ स्वाँग सर, नाम नीर तहं नाँहिं ॥१२१॥
मृग तृष्णा१ के सरोवर को देखकर मृग यूथ२ उस पर जाता है किन्तु वहां जाने पर वह खाली३ मिलता है, मृगों को जाने आने का कष्ट मिलता है, जल नहीं मिलता । वैसे ही सुन्दर भेष देखकर मन जाता है किंतु वे नाम चिन्तन रहित खाली ही मिलते हैं ।
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अंब चित्र ज्यों अंब कहावे,
तरू फल बिना कौन सचु१ पावै ।
रज्जब दरश दशा यूं जान,
निष्फल बिना मिले भगवान ॥१२२॥
जैसे आम का चित्र आम कहलाता है किन्तु उस वृक्ष के फल लगे बिना उसके फल का सुख१ कौन पायेगा । वैसे ही भेष की दशा जानो अर्थात भेषधारी साधु कहलाता है किंतु भेष से भगवान तो मिलते नहीं तब भेष निष्फल ही है ।
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स्वाँग सिंघाड़ी निफल है, जे जप जड़ सु न लाभ ।
अफल सफल से देखिये, रज्जब बड़े अभाग ॥१२३॥
सिंघाड़े की बेल यदि जड़ से नहीं लगी है तो निष्फल है वैसे ही भेषधारी हरि नाम जप में नहीं लगा है तो उसका भेष निष्फल है, भेषधारियों को प्रभु प्राप्ति रूप फल के बिना भी सफल से देखते हैं वे बड़े अभागे हैं ।
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भेष भरोसे बूड़िये, जे नाम नाव कन१ नाँहिं ।
रज्जब कही सु२ मानिस्यौं३, पैठे४ भव जल माँहिं ॥१२४॥
यदि नाम चिन्तन रूप नौका पास१ नहीं है तब भेष के भरोसे तो डूबोगे ही, हे मनुष्यों३ ! मैनें यह ठीक ही कहा है, जो नाम चिंतन से रहित भेष के भरोसे रहा है सो२ तो संसार के विषय जल में ही प्रविष्ठ४ हुआ है ।
(क्रमशः)
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