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*दादू माया सौं मन रत भया, विषय रस माता ।*
*दादू साचा छाड़ कर, झूठे रंग राता ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ माया का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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मणि – अच्छा, क्या निराकार की साधना नहीं होती ?
श्रीरामकृष्ण – होती क्यों नहीं ? वह रास्ता बड़ा कठिन है । पहले के ऋषि कठिन तपस्या करके तब कहीं ब्रह्मवस्तु का अनुभव कर पाते थे । ऋषियों को कितनी मेहनत करनी पड़ती थी – अपनी कुटिया से सुबह को निकल जाते थे । दिनभर तपस्या करके सन्ध्या के बाद लौटते थे । तब आकर कुछ फल-मूल खाते थे ।
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“इस साधना में विषयबुद्धि का लेशमात्र रहते सफलता न होगी । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श – ये सब विषय बुद्धि मन में जब बिलकुल न रह जाएँ, तब मन शुद्ध होता है । वह शुद्ध मन जो कुछ है, शुद्ध आत्मा भी वही है । मन में कामिनी-कांचन बिलकुल न रह जाएँ ।
“तब एक और अवस्था होती है – ‘ईश्वर ही कर्ता हैं, मैं अकर्ता हूँ ।’ मेरे बिना काम नहीं चल सकता’ ऐसा भाव तब बिलकुल नहीं रहता – सुख में भी और दुःख में भी ।
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“किसी मठ के साधु को दुष्टों ने मारा था । मार खाकर वह बेहोश हो गया । चेतना आने पर जब उससे पूछा गया, ‘तुम्हें कौन दूध पिला रहा है ?’ तब उसने कहा था, ‘जिन्होंने मुझे मारा था वे ही मुझे दूध पिला रहे हैं ।’
मणि – जी हाँ, यह जानता हूँ ।
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*स्थित-समाधि और उन्मनी-समाधि*
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श्रीरामकृष्ण – नहीं, सिर्फ जानने से ही न होगा, -धारणा भी होनी चाहिए ।
“विषयचिन्तन मन को समाधिस्थ नहीं होने देता विषयबुद्धि का पूरी तरह त्याग होने पर स्थित-समाधि हो जाती है । मेरी देह स्थित-समाधि में छूट सकती है, परन्तु मुझमें भक्ति और भक्तों के साथ कुछ रहने की वासना है । इसीलिए देह पर भी कुछ दृष्टि है ।
“एक और है – उन्मना-समाधि । फैले हुए मन को एकाएक समेट लेना यह तुम समझे?”
मणि – जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण – फैले हुए मन को एकाएक समेट लेना, यह समाधि देर तक नहीं रहती । विषय-वासनाएँ आकर समाधिभंग कर देती हैं – योगी का योग भंग हो जाता है ।
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“उस देश में दीवार के भीतर बिल में नेवला रहता है । बिल में जब रहता है, खूब आराम से रहता है । कोई कोई उसकी पूँछ में ईंट बाँध देते हैं; तब ईंट के कारण वह बिल से निकल पड़ता है । जब जब वह बिल के भीतर जाकर आराम से बैठने की चेष्टा करता है, तब तब ईंट के प्रभाव से बिल से निकल आना पड़ता है । विषयवासना भी ऐसी ही है, योगी को योगभ्रष्ट कर देती है ।
“विषयी मनुष्यों की कभी कभी समाधि की अवस्था हो सकती है । सूर्योदय होने पर कमल खिल जाता है, परन्तु सूर्य मेघों से ढक जाने पर फिर वह मूँद जाता है । विषय मेघ है ।”
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प्रणाम करके मणि बेलतला की ओर जा रहे हैं ।
बेलतला से लौटने में दोपहर हो गयी । विलम्ब देखकर श्रीरामकृष्ण बेलतला की ओर आ रहे हैं । मणि दरी, आसन, जल का लोटा लेकर लौट रहे हैं । पंचवटी के पास श्रीरामकृष्ण(मणि के प्रति) – मैं जा रहा था, तुम्हें खोजने के लिए । सोचा दिन इतना चढ़ आया, कहीं दीवार फाँदकर भाग तो नहीं गया ! तुम्हारी आँखें उस समय जिस प्रकार देखी थीं उससे सोचा, कहीं नारायण शास्त्री की तरह भाग तो नहीं गया ! उसके बाद फिर सोचा, नहीं, वह भागेगा नहीं, वह काफी सोच-समझकर काम करता है ।
(क्रमशः)

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