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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ३५/८)
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*साहिब को सुमिरै नहीं, बहुत उठावै भार ।*
*दादू करणी काल की, सब परलै संसार ॥३५॥*
हरि विमुख पुरुष पाप कर्म करके पाप के भार से पीड़ित रहते हैं तथा भजन के बिना ही इस संसार में जन्मते मरते हैं ।
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*सूता काल जगाइ कर, सब पैसैं मुख मांहि ।*
*दादू अचरज देखिया, कोई चेतै नांहि ॥३६॥*
जैसे कोई सूते हुए सिंह को जगा कर उसके सामने जाता है तो वह अपनी मृत्यु को जान बूझ कर बुला रहा है । वैसे ही संसार में प्राणी कुत्सित कर्म करके काम क्रोध आदि के द्वारा प्रसुप्त काल को जगा कर उसके मुख में जाकर जन्मते मरते हैं । परन्तु कोई भी सावधान नहीं होता यह एक महान् आश्चर्य है ।
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*सब जीव बिसाहैं काल को, कर कर कोटि उपाइ ।*
*साहिब को समझैं नहीं, यों परलै ह्वै जाइ ॥३७॥*
इस संसार में प्राणी कुत्सित कर्म करके अनेक उपायों से अपने काल को ही खरीद रहे हैं और परमात्मा को नहीं जानते । अतः वे बार-बार जन्मते मरते हैं ।
भागवत में लिखा है कि- जिन लोगों ने आत्मज्ञान तो प्राप्त किया नहीं, न वे पूरे मूढ ही हैं । वे धर्म अर्थ काम इन तीनों पुरुषार्थों में ही लगे रहते हैं । एक क्षण के लिये भी शान्ति जिनको नहीं मिलती वे अपने हाथों से अपने पैरों में कुल्हाड़ा मार रहे हैं । ऐसे ही लोग आत्मघाती होते हैं । अज्ञान को ही ज्ञान मानने वाले इन आत्मघातियों को शान्ति नहीं मिलती है । न इनकी कर्म परंपरा शान्त होती । काल भगवान् इनके मनोरथों को नष्ट करते रहते हैं । इनके हृदय की जलन या विषाद कभी नष्ट नहीं होगी । जो भगवान् कृष्ण से विमुख हैं । वे परिश्रम कर के धन संपति गृह परिवार इनको इकट्ठा करते हैं आखिर उन सब को यहां छोड़कर ही जाना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर नरक में जाते हैं । अतः भगवान् का भजन करना चाहिये ।
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*दादू कारण काल के, सकल संवारैं आप ।*
*मीच बिसाहैं मरण को, दादू शोक संताप ॥३८॥*
यह जीवात्मा अपने हृदय को काम क्रोधादिकों से अलंकार की तरह से सजाता है । वह सब मृत्यु के लिये ही करता है । अपने मरण के लिये व्यर्थ में ही मृत्यु को मोल लेकर शोक संताप करता हैं । अतः इस शरीर से भजन करना चाहिये ।
श्री भागवत में लिखा है कि- हे पुत्रों इस लोक में यह मनुष्य शरीर दुःखमय भोगों के लिये नहीं है । वे भोग तो विष्ठा भोगी सूकर कूकरों को भी मिलते हैं । इस शरीर से दिव्यतप ही करना चाहिये । जिससे अन्तःकरण शुद्ध हो । क्योंकि शुद्ध अन्तःकरण स एही अनन्तब्रह्मानन्द की प्राप्ति होती है ।
(क्रमशः)
Nice
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