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🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
*ऊपरि आलम सब करैं, साधू जन घट माँहि ।*
*दादू एता अन्तरा, ताथैं बनती नांहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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षट् दर्शन सहिनाण करि, गुरु खेचर गहि लेहि ।
जन रज्जब ज्यों श्वान शिशु, बधिक बांधणे देहि ॥१४१॥
जैसे कुत्ती के बच्चों के गले में व्याध पटिया बाँध देता है, वैसे ही स्वार्थी गुरु छ: प्रकार के भेष का चिन्ह करके प्राणियों को पकड़ते हैं ।
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तन मन पतिव्रत चाहिये, रहित सहित श्रृंगार ।
कंत न छाड़ै कामिनि, रज्जब बिन व्यभिचार ॥१४२॥
तन मन में पतिव्रत चाहिये, फिर चाहे श्रृंगार से रहित हो वा सहित हो, बिना व्यभाचार नारी को उसका पति नहीं त्यागता, वैसे ही भेष हो वा नहीं हो भगवान का भजन निरंतर होना चाहिये फिर भगवान भक्त को नहीं त्यागते ।
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श्रृंगार सहित अथवा रहित, पति परसे सुत होय ।
रज्जब भामिनी भेषबल, फल पावै नहिं कोय ॥१४३॥
जैसे नारी श्रृंगार से युक्त हो वा रहित हो पुत्र तो पति मिलने से ही होगा, वैसे ही भेष सहित हो वा रहित हो मुक्ति रूप फल तो भेष-बल से नहीं होता, प्रभु के दर्शन से ही होगा, सो भजन से होता है ।
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जन्त्र ठाट सब चाहिये, नाल हिं रंग न रंग ।
रज्जब धोखै, रंग के, नहीं राग में भंग ॥१४४॥
सितार के पड़दे, खूटी आदि सब ठाट चाहिये, नाल के रंग हो वा बिना रंग हो, रंग की भूल से राग बजाने में कोई विघ्न नहीं पड़ता । वैसे ही भेष हो वा नहीं हो प्रभु प्राप्ति के साधन भजनादि होने चाहिये फिर प्रभु दर्शन में कोई विघ्न नहीं पड़ता ।
(क्रमशः)
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