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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“सप्तमोल्लास” २२/२४)
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*कैसे मिले बहुत दिन पीछे,*
*भिन्न भिन्न करि वरणों आछै ।*
*भक्ति तुम्हारी जग भरपूर,*
*ऐसौ कोन पूरब अंकूर ॥२२॥*
हे स्वामिन बहुत दिन पीछे मिले का आशय क्या है, हमको भी तो बताइये । इस बात को भिन्न भिन्न रूप से जैसे मैं समझ सकूं वैसै ही वर्णन करके बताइये कि बहुत दिन पीछे कैसे मिले । भक्ति तुम्हारी जग भपरपूर, आपकी भक्ति तो अर्थात् आपके द्वारा प्रचारित भगवद् भक्ति तो जगत में परिपूर्ण रूप से फैल रही है । मेरे भी पूर्व के पुण्य व भाग्य कार्य का कोई ऐसा अंकुर उदय हुआ है कि आपकी भक्ति के बिना दूसरे देव की पूजा मेरे से होती ही नहीं ॥१०२॥
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*तव भक्ति बिन देव न दूजा,*
*और किसी की नाहीं पूजा ।*
*इकंत्र भक्ति बिसवे करैं,*
*नर नारी ध्यान हरि धरैं ॥२३॥
आप की भक्ति के बिना दूसरे देव की पूजा मुझसे नहीं होती । सब एकत्र होकर नर नारियां विशेषकर के आपकी ही पूजा और आपको हरि समझ कर ध्यान धरते हैं ॥२३॥
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*फिरै दुहाई टापू मांही,*
*अनन्य भक्ति दूजा को नांही ।*
*पूरब ऐसी कौन कमाई,*
*जिहिं करणी सूं यह गति पाई ॥२४॥*
हमारे केदार देश टापू में आपकी दुहाई फिराई हुई है कि दादूजी को छोड़ कर अन्य की भक्ति कोई भी न करें । मेरी पहले की ऐसी कौनसी कमाई है कि जिसका फल मुझे वर्तमान में आपकी भक्ति रूप में मिल रहा है ॥२४॥
(क्रमशः)
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