रविवार, 17 जनवरी 2021

*देह तैं निशंक नहीं शंक पाप पुनि की*

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🙏🇮🇳 *卐सत्यराम सा卐* 🇮🇳🙏
🌷🙏🇮🇳 *#भक्तमाल* 🇮🇳🙏🌷
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*मति मोटी उस साधु की, द्वै पख रहित समान ।* 
*दादू आपा मेट कर, सेवा करै सुजान ॥* 
*(#श्रीदादूवाणी ~ मध्य का अंग)* 
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*मृग मध्य वृत्ति रही मृग गयो मृगन में,*
*मृग मृग करत ही मृत्यु भयी मुनि की ।*
*तातैं मुनि मृगी पेट आय के जनम लियो,*
*दश वर्ष मृग रह्यो मांही वृत्ति धुनि की ॥*
*तीसरे जनम निज नैष्ठिक सुविप्र भयो,*
*देह तैं निशंक नहीं शंक पाप पुनि की ।*
*राघो रहुगण हु से बोले मुनि मौन तज,*
*जान्यौं जड़भर्त अर्थ मोक्ष भई उनिकी ॥६२॥*
मुनि भरत जी की मनोवृत्ति प्रायः मृग में ही रहती थी, जब मृग मृगों में चला गया और लौटकर नहीं आया तब मृग मृग उच्चारण करते हुए उनकी मृत्यु हुई थी, इसी से उन मुनि ने मृगी के पेट में आकर जन्म लिया और दश वर्ष तक मृग शरीर में रहे किन्तु उनके अन्तःकरण की वृत्ति तो अन्तरनाद ओंकार की ध्वनि के आकार ही रहती थी अर्थात् नाभि प्रदेश में होने वाली ओंकार ध्वनि पर ही वृत्ति स्थिर रहती थी ।
तीसरे जन्म में वे मुनि निज स्वरूप में निष्ठा रखने वाले श्रेष्ठ ब्राह्मण हुए । शरीर सम्बंधी किसी भी प्रकार की शंका उनके मन में नहीं थी तथा पाप पुण्य संबन्धी शंका भी नहीं थी । इक्षुमती नदी के तट पर राजर्षि रहुगण की पालकी में जोतने पर तथा राजा के डाँटने पर मुनि जड़भरत जी मौन को त्याग कर बोले थे । उस समय राजा रहुगण ने महात्मा जड़भरत से जानने योग्य अर्थ जाना था अर्थात् स्वस्वरूप का ज्ञान प्राप्त किया था । जिससे राजर्षि रहुगण की मोक्ष हो गई थी ।
(क्रमशः)

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