रविवार, 17 जनवरी 2021

*१२. चितावणी कौ अंग ~ १७/२०*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१२. चितावणी कौ अंग ~ १७/२०*
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कहि जगजीवन विकलता, देह गेह धरि ध्यांन ।
अकल सकलता अमी रस, सहज सुन्नि गुरु ग्यांन ॥१७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि ज्ञान होने से ही प्रभु के प्रति विकलता आती है तब सकल सर्वत्र आनंद रस मिलता है व सहज शून्य में सब बोध हो जाता है ।
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देह गंवावै देह करि, देही के विस्तार ।
कहि जगजीवन विदेही, ता की सुधी१५ न सार१६ ॥१८॥
(१५. सुधी=समझ) {१६. सार=सम्हाल(रक्षा)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु की दी हुइ इस देह को इसकै विस्तार से ही मत गंवाइए, जितना इसके सबंध बढायेंगे उतनी ही यह प्रभु विमुख होगी अतः उन विदेह परमात्मा का ध्यान कर इस देह की सार्थकता सुनिश्चित करें ।
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रांम निरंजन भूल हरि, जगमगावै ठौर ।
कहि जगजीवन रैनि दुख, घर मसाण कै गौर ॥१९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु का नाम भूल कर स्वयं के निवास की जगमगाहट करते हो ऐसा घर श्मशान सदृश व रात्रि सम अंधकार मय होता है ।
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बचन बिचारै बेखरी१, बरड़ावै२ वपु मांहि ।
कहि जगजीवन रांम हरी, अविगति बूझै नाहि ॥२०॥
{१. बेखरी=जिह्वा की सहायता से बोली जाने वाली वाणी (शास्त्र में चतुर्विधि वाणी कही गयी हैं; १. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा एवं ४. वैखरी)} (२. बरड़ावै=प्रलाप करता है) संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव जो कुछ कहती है वह शरीर में प्रलाप जैसा होता है उसमें विचार नहीं होते विचार कर परमात्मा का नाम स्मरण करें जो जीव जानता भी नहीं है ।
(क्रमशः)

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