रविवार, 17 जनवरी 2021

काल का अंग २५ - ६०/६३


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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ६०/६३)
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*सूता आवै सूता जाइ, सूता खेले सूता खाइ ।*
*सूता लेवै सूता देवै, दादू सूता जाइ ॥६०॥*
अज्ञान दशा में सोते हुए ही प्राणी आना, जाना, खेलना, खाना, पीना, लेना देना आदि सब व्यवहार आसक्तिपूर्वक ही करता है । ज्ञान दशा में नहीं क्योंकि ज्ञान से तो आसक्ति नष्ट हो जाती है और आसक्ति के बिना व्यवहार नहीं हो सकता । लिखा है कि-
ब्रह्म विचार के द्वारा जिनका अन्तःकरण पवित्र हो गया ऐसे ज्ञानी पुरुष उपभोग करते हुए भी उस भोग सामग्री धनादिकों को त्याग देते हैं । यह उनका कार्य बड़ा ही दुष्कर है । हम तो न हमारे पास अभी भोग की सामग्री है न आगे प्राप्त होने का दृढ़ विश्वास है और न अब है । किन्तु उनके प्राप्त होने की इच्छा मात्र हैं । उसको भी नहीं त्याग सकते हैं ।
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*दादू देखत ही भया, श्याम वर्ण तैं सेत ।*
*तन मन यौवन सब गया, अजहुँ न हरि सौं हेत ॥६१॥*
देखते देखते बुढापा आ गया । बाल भी श्याम से सफेद हो गये । शरीर सौन्दर्य भी नहीं रहा । मन के मनोरथ भी निष्फल चले गये । यौवन भी नष्ट हो गया । किन्तु प्रभु प्रेम तो अभी भी नहीं हुआ । हाय ऐसे जीवन को धिक्कार है । लिखा है कि-
सूना नगर भी अच्छा लग सकता है । लतारहित वृक्ष भी सुशोभित होता रहता है । अनावृष्टि वाला देश भी अच्छा लग सकता है । किन्तु वृद्धावस्था न जीर्ण शरीर कभी किसी को भी अच्छा नहीं लगता । यह जरा अवस्था बड़ी ही उत्सुकता से शिर पकड़ कर देह को तोड डालती है । जैसे कुमारी लड़की कमलों को तोड़ देती है । जरा अवस्था से शरीर को पका हुआ देखकर कुश्माण्ड की तरह इस शरीर को काल भगवान् खा जाते हैं । अतः हरि को भजो ।
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*दादू झूठे के घर देख कर, झूठे पूछे जाइ ।*
*झूठे झूठा बोलते, रहे मसाणों आइ ॥६२॥*
संसार के सभी व्यवहार तथा व्यवहार करने वाले तथा उनको देखकर दूसरे लोग जो भी व्यवहार परायण रहते हैं वे सब ही मिथ्या हैं और दिन रात व्यवहार करते हुए ही मृत्यु के मुख में चले जाते हैं ।
किसी ने लिखा है कि-
किसी अनर्थकारी पुरुष के द्वारा यह विलक्षण कपट रचा गया है कि यह मेरा मित्र है यह पुत्र है, यह बान्धव है । वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो कौन किसका स्वजन या परिजन है । जैसे स्वप्न में संसारजाल मिथ्या है, वैसे ही यह लोक व्यवहार भी मिथ्या ही है ।
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*दादू प्राण पयाना कर गया, माटी धरी मसाण ।*
*जालणहारे देखकर, चेतैं नहीं अजाण ॥६३॥*
मरने के बाद मरे हुए शरीर को चिता में अग्नि से जलते हुए देख कर भी जलाने वालों को विचार नहीं होता कि हमारी भी एक दिन यही दशा होगी । अतः वे सदा असावधान ही रहते हैं । यह अज्ञान की पराकाष्ठा है । महाभारत में यौवन, रूप, जीवन, द्रव्य संचय, आरोग्य, प्रिय संवास, ये सदा एक रस नहीं रहते बदलते रहते हैं । अतः बुद्धिमान् इनकी इच्छा ही न करें । यह शरीर प्रतिक्षण नष्ट होता हुआ दिखता नहीं है । जैसे कच्चे घड़े का पानी जाते हुए नहीं दीखता । नष्ट होने पर ही पता चलता है कि यह जीर्ण हो गया । मृत्यु प्रतिदिन मनुष्य के पास आ रही है जैसे वध्य स्थान पर ले जाते हुए पशु की मृत्यु नजदीक आ रही है ।
(क्रमशः) 

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