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🌷 *#श्रीरामकृष्ण०वचनामृत* 🌷
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*अन्तर सोई नीका जाणै,*
*निमिष न बिसरै ब्रह्म बखाणै ॥*
*सोई सुजाण सुधा रस पीवै,*
*दादू देखि जुग जुग जीवै ॥४॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ पद्यांश. २६९)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*श्रीरामकृष्ण और विशिष्ट द्वैतवाद*
“पद्मलोचन मेरे मुँह से रामप्रसाद का गाना सुनकर रोने लगा । पर था वह कितना विद्वान् !”
भोजन के बाद श्रीरामकृष्ण कुछ विश्राम कर रहे हैं । जमीन पर मणि बैठे हुए हैं । नौबतखाने में शहनाई का वाद्य सुनते हुए श्रीरामकृष्ण आनन्द कर रहे हैं । फिर मणि को समझाने लगा, ब्रह्म ही जीव-जगत् हुए हैं ।
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श्रीरामकृष्ण – किसी ने कहा, अमुक स्थान पर हरिनाम नहीं है । उसके कहते ही मैंने देखा, वही सब जीव हुए हैं । मानो पानी के असंख्य बुलबुले – असंख्य जलबिम्ब !
“उस दिन से बर्दवान आते आते दौड़कर एक बार मैदान की ओर चला गया – यह देखने के लिए कि यहाँ के जीव किस तरह खाते हैं और रहते हैं ! जाकर देखा, मैदान में चींटियाँ रेंग रही हैं ! सभी जगह चैतन्यमय है !”
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हाजरा कमरे में आकर जमीन पर बैठ गए ।
श्रीरामकृष्ण – अनेक प्रकार के फूल – तह के तह पँखुड़ियाँ – यह भी देखा ! – छोटा बिम्ब और बड़ा बिम्ब ।
ईश्वरीय रूप-दर्शन की ये सब बातें कहते कहते श्रीरामकृष्ण समाधिस्थ हो रहे हैं । कह रहे हैं, “मैं हुआ हूँ ! मैं आया हूँ !’
यह बात कहकर ही एकदम समाधिस्थ हो गए । सब कुछ स्थिर हो गया ।
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बड़ी देर तक समाधि के आनन्द में मग्न रह लेने पर कुछ होश आ रहा है । अब बालक की तरह हँस रहे हैं, हँस-हँसकर कमरे में टहल रहे हैं । अद्भुत दर्शन के बाद आँखों से जैसे आनन्द-ज्योति निकलती है, श्रीरामकृष्ण की आँखों का भाव वैसा ही हो गया । सहास्य मुख, शून्य दृष्टि ।
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श्रीरामकृष्ण टहलते हुए कह रहे हैं –
“बटतल्ले के परमहंस को देखा था, इसी तरह हँसकर चल रहा था ! – वही स्वरूप मेरा भी हो गया क्या ?”
इस तरह टहलकर श्रीरामकृष्ण अपने छोटे तख्त पर जा बैठे और जगन्माता से बातचीत करने लगे ।
श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – “ख़ैर, मैं जानना भी नहीं चाहता ! माँ, तुम्हारे पादपद्मों में मेरी शुद्ध भक्ति बनी रहे ।”
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(मणि से) – “क्षोभ और वासना के जाने से ही यह अवस्था होती है ।”
फिर माँ से कहने लगे – “माँ, पूजा तो तुमने उठा दी, परन्तु देखो, मेरी सब वासनाएँ चली न जाएँ ! माँ, परमहंस तो बालक है – बालक को माँ चाहिए या नहीं ? इसलिए तुम मेरी माँ हो, मैं तुम्हारा बच्चा । माँ का बच्चा माँ को छोड़कर कैसे रहे ?”
श्रीरामकृष्ण ऐसे स्वर से बातचीत कर रहे हैं कि पत्थर भी पिघल जय । फिर माँ से कह रहे हैं – “केवल अद्वैत ज्ञान ! थू थू ! जब तक ‘मैं’ रखा है, तब तक ‘तुम’ हो । परमहंस तो बालक है; बालक को माँ चाहिए या नहीं ?”
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मणि आश्चर्यचकित होकर श्रीरामकृष्ण की यह देवदुर्लभ अवस्था देख रहा हैं । वे सोच रहे हैं – ‘श्रीरामकृष्ण अहेतुक दयासिन्धु हैं । मुझ में विश्वास उत्पन्न हो, चैतन्य जागृत हो और जीवों को शिक्षा प्राप्त हो, इसीलिए गुरुरुपी श्रीरामकृष्ण की यह परमहंस अवस्था है !’
मणि और भी सोचते हैं – ‘श्रीरामकृष्ण कहते हैं, अद्वैत – चैतन्य – नित्यानन्द । अद्वैतज्ञान होने पर चैतन्य प्राप्त होता है, तभी नित्यानन्द का लाभ होता है । श्रीरामकृष्ण की केवल अद्वैतज्ञान की नहीं – नित्यानन्द की अवस्था है । जगदम्बा के प्रेम में सदा विभोर हैं – मतवाले से !’
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हाजरा श्रीरामकृष्ण की यह अवस्था देख हाथ जोड़कर कहने लगे – “धन्य है ! धन्य है !”
श्रीरामकृष्ण हाजरा से कह रहे हैं – “तुम्हें विश्वास कहाँ है ? तुम तो यहाँ उसी तरह हो जैसे जटिला और कुटिला व्रज में थीं, - लीला की पुष्टि के लिए ।”
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तीसरा प्रहर हुआ । मणि अकेले देवालय के निकट निर्जन में टहल रहे हैं और श्रीरामकृष्ण की इस अद्भुत अवस्था के बारे में सोच रहे हैं । सोच रहे हैं – श्रीरामकृष्ण ने ऐसा क्यों कहा कि क्षोभ और वासना के जाने से ही यह अवस्था होती है ? ये गुरुरुपी श्रीरामकृष्ण कौन हैं ? क्या भगवान् स्वयं ही हमारे लिए देहधारण कर आए हैं ? श्रीरामकृष्ण तो कहते हैं कि ईश्वरकोटि-अवतार आदि के अलावा दूसरा कोई जड़समाधि, निर्विकल्प समाधि से लौट नहीं आ सकता ।’
(क्रमशः)

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