शनिवार, 16 जनवरी 2021

(“सप्तमोल्लास” ३४/३६)


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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“सप्तमोल्लास” ३४/३६) 
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*पास में एक नदी थी*
*लागे प्यास सलिता तहां नीरू,*
*विलसे प्राण जु सुख की सीरू ।*
*बन की करैं बहुत प्रतिपाला,*
*जीव को हतैं न काटैं काला ॥३४॥*
प्यास लगने पर नदी का जल पी लेते और ब्रह्मानन्द में मग्न रहते वे अपने तप तेज से बनकी व वनवासी प्राणियों की रक्षा करते थे उनके बन में न कोई वृक्ष ही काट सकता था और न शिकार ही कर सकता था ॥३४॥
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*राजा समौं पाइ चलि आयो,*
*आखेटक बन मांहि तकायौ ।*
*मृग मंडली आई तिहिं वारा,*
*दीयौ नृप असव ताहू की लारा ॥३५॥*
एक दिन उस देश का राजा शिकार के लिये उस बन में आ गया और इधर उधर शिकार को देखने लगा । उसी समय एक मृग मंडली वहां आ गई । उसे देख कर उस मृग मंडली के पीछे राजा ने अपना घोड़ा लगाया ॥३५॥
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*चारों युग की कथा-राजा हिरनों के पीछे*
*कुरंगहु आगे पीछे राई,*
*रिशि स्थान जु निकसे आई ।*
*आड़ा तिनके रिशि गया,*
*क्रोधमान राजा तब भया ॥३६॥* 
आगे हिरणों का झुंड भाग रहा था और पीछे घोड़े पर राजा आ रहा था । इस प्रकार भागते हुये वे उस ॠषि के आश्रम के पास आ गये । जब ॠषि ने राजा को मृगों के पीछे उनको मारने के लिये भागते देखा तो ॠषि ने राजा के सामने खड़े होकर रोकने का प्रयत्न किया तो राजा को बहुत क्रोध आ गया ॥३६॥
(क्रमशः)


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