शनिवार, 2 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१०५/१०८)* =

🌷🙏*🇮🇳 #daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
*दादू सोधी नहीं शरीर की, कहैं अगम की बात ।*
*जान कहावैं बापुड़े, आवध लिए हाथ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
जो जीव जिहिं जायगह जड्या१, तहीं जड़ै२ ले और । 
त्यों रज्जब मेघा मृग ही, मुक्तहिं राखे ठौर ॥१०५॥ 
जो जीव जिस स्थान पर स्थिर१ रहता है, वहाँ ही अन्य को भी स्थिर२ कर लेता है । जैसे मेघा नामक सुगंधित घास खुले हुये मृग को भी अपने स्थान पर ही खड़ा कर लेता है(मृग सुगंध के कारण खड़ा रह जाता है) वैसे ही भेषधारी भेष से रहित को भी भेष से बांधकर अपने स्थान में ही रख लेते हैं । वा मेधामृग काला-मृग जैसा खुले हुये मृगों को भी अपने पास ही रखता है, वैसे ही भेषधारी भेष रहित को भी अपने पास रखते हैं फिर भेष सहित कर देते हैं । 
ऊँट रेत रासभ राख, पुनि गरद गयंदै । 
खाणे को कछु नाहिं, दरशणी दरशण बँदै ॥१०६॥ 
जैसे ऊँट रेत में लौटता है, गधा भस्म में लौटता है और हाथी सूँड से धूलि अपने ऊपर डाल लेता है, वैसे ही खाने के लिये कुछ नहीं होने पर भी भेषधारी अपने भस्म रमाने रूप भेष में बाँध देते हैं । यदि भस्म से मुक्ति हो तो ऊंटादि की भी होनी चाहिये । 
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शील१ सांच सुमिरण बिना, ज्ञान खड़क कर नाँहिं । 
सीझ मूये रवि रोस लगि, बाने बकतर२ माँहिं ॥१०७॥ 
हाथ में तलवार भी न हो और केवल कवच पहन ले तब युद्ध करने में तो समर्थ हो नहीं सकता, सूर्य की तेज धूप से कवच२ में दु:खी ही होता है । वैसे ही ब्रह्मचर्य१, सत्य, हरि-स्मरण और ज्ञान तो कुछ भी नहीं हैं । केवल भेष बना लिया है, तब अपने क्रोधादि दोषों से आप ही दु:खी होकर मरता है । 
गृही औढै गूदड़ी, तो उतरे तन ताप । 
रज्जब ज्वर यति१ यहिं चढै, गूदड़ के सु प्रताप ॥१०८॥ 
गृहस्थी गुदड़ी ओढता है तब उसका तो पसीना आकर ज्वर उतर जाता है किंतु उसी गुदड़ी के प्रताप से साधु१ को वैराग्य का अभिमान रूप ज्वर चढ़ जाता है । 
(क्रमशः)

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