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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४३६ - *परिचय ~ उपदेश* । पँजाबी त्रिताल
तिस घर जाना वे, जहां वे अकल स्वरूप ।
सोइ अब ध्याइये रे, सब देवन का भूप ॥टेक॥
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अकल स्वरूप पीव का, बाह्य बरन न पाइये ।
अखँड मँडल मांहिं रहे, सोई प्रीतम गाइये ॥
गावहु मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
प्रकट पीव ते पाइये ।
सांई सेती संग साचा, जीवित तिस घर जाइये ॥१॥
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अकल स्वरूप पीव का, कैसे करि आलेखिये ।
शून्य मँडल मांहिं साचा, नैन भर सो देखिये ॥
देखो लोचन सार वे, देखो लोचन सार,
सोई प्रकट होई, यह अचँभा पेखिये ।
दयावन्त दयालु ऐसो, बरण अति विशेखिये ॥२॥
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अकल स्वरूप पीव का, प्राण जीव का,
सोई जन जे पावही ।
दयावन्त दयालु ऐसो, सहजैं आप लखावही ॥
लखै सु लखणहार वे, लखै सोई संग होई,
अगम बैन सुनावही ।
सब दुख भागा रँग लागा, काहे न मँगल गावही ॥३॥
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अकल स्वरूपी पीव का, कर कैसे करि आँणिये ।
निरन्तर निर्धार आपै, अंतर सोई जाँणिये ।
जाणहुं मन विचारा वे, मन विचारा सोई सारा,
सुमिर सोई बखानिये ।
श्री रँग सेती रँग लागा, दादू तो सुख मानिये ॥४॥
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४३६ - ४३९ में साक्षात्कार सम्बन्धी उपदेश कर रहे हैं - हे साधक ! उस निर्विकल्प समाधि रूप घर में जाना चाहिये, जिसमें कला विभाग से रहित वे निरंजन ब्रह्म प्राप्त होते हैं । अब सब देवताओं के राजा उसी ब्रह्म का ध्यान कर ॥टेक॥
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उस निराकार स्वरूप प्रियतम के भेष, रँग, जाति नहीं मिलते । जो अपनी महिमा रूप अखँड मँडल में रहता हैं, उसी प्रियतम ब्रह्म का नाम गान कर और यश गान करते हुये अन्त:करण से विचार कर, जो उस सार स्वरूप ब्रह्म का अन्त:करण से विचार करते हैं वे उसे प्रत्यक्ष आत्म रूप से प्राप्त करते हैं । निर्विकल्प समाधि - घर में जाकर जीवितावस्था में ही उस परब्रह्म के साथ अभेद रूप सच्चा संग प्राप्त कर ॥१॥
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निरवयव स्वरूप प्रियतम ब्रह्म का किसी भी प्रकार साक्षात्कार कर, वह सत्य ब्रह्म सहस्रार रूप शून्य मँडल में स्थित भासता है, उसे ज्ञान - नेत्रों से इच्छा भर के देखो । उस विश्व के सार को ज्ञान - नेत्रों से बारम्बार देखो । वहां यह आश्चर्य देखने में आता है कि - जो निराकार है, वही ब्रह्म प्रकट हो रहा है । वह ऐसा दया - गुण से युक्त दयालु है कि रँग रूप रहित होने पर भी भक्तों पर कृपा करने के लिये अति विशेष ओंकारवर्ण रूप से वो भक्त भावनानुसार रँग - रूप से भासता रहता हैं ॥२॥
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जो जीव का प्राणाधार हैं, उनका निरँग प्रियतम ब्रह्म के स्वरूप को जो उसका भक्त होता है, वही प्राप्त करता है, वह ऐसा दया गुण सम्पन्न दयालु है कि भक्त को अनायास ही अपना स्वरूप दिखा देता है । सुन्दर लक्षणों वाला भक्त ही देखता है । जो देखता है, वह अभेद रूप से उसके संग ही हो जाता है और उस अगम ब्रह्म सम्बन्धी ही वचन सुनाता है । उसके सब दु:ख नष्ट हो जाते हैं, ब्रह्म का अभेद भाव रूप अमिट रँग लग जाता है फिर वह क्यों नहीं ब्रह्म सम्बन्धी मँगल गीत भावेगा ? ॥३॥
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उस कला विभाग रहित प्रियतम ब्रह्म के स्वरूप का कृपारूप हाथ किसी भी प्रकार साधन करके पकड़ना चाहिये। अविचल ब्रह्म का अपने आत्म स्वरूप से अभेद निर्णय करके उसी अद्वैत निष्ठा को भीतर रखना चाहिये । अन्त:करण से विचार करके उसे जानो, अन्त:करण में विचार करने से वही विश्व का सार ज्ञात होगा । उसी का स्मरण करो, उसी का कथन करो । इस प्रकार यदि परब्रह्म रूप श्री रँग से तुम्हारा प्रेम लग जाय तभी तुमको सुख मानना चाहिए । इस स्थिति से पूर्व तो विरह पूर्वक निरन्तर हरि चिन्तन करते रहना चाहिये ॥४॥
(क्रमशः)
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