गुरुवार, 7 जनवरी 2021

*हरि के समर्पित राजर्षि*

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🙏🇮🇳 *卐सत्यराम सा卐* 🇮🇳🙏
🌷🙏🇮🇳 *#भक्तमाल* 🇮🇳🙏🌷
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*साहिब जी के नांव में, सब कुछ भरे भंडार ।*
*नूर तेज अनन्त है, दादू सिरजनहार ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ स्मरण का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,* 
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान* 
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
*तन मन धन अर्पि हरि मिले,* 
*जन राघव येते राजॠष ॥*
*उत्तानपाद प्रियव्रत, अंग मुचकंद प्रचेता ।*
*योगेश्वर मिथिलेश, पृथु परीक्षित ऊर्ध्वरेता ॥*
*हरिजश्वा हरिविश्व, रहुगण जनक सुधन्वा ।*
*भागीरथ हरिचंद्र, सगर सत्यव्रत सु मन्वा ॥*
*प्राचीनबर्ही इक्ष्वाकु रघु, रुक्मांगद कुरु गाधि शुचि ।*
*भरत सुरथ सुमती रिभू, अैल अमूरती रै गै रूचि ॥५४॥*
अपने तन, मन और धन को हरि के समर्पण करके इतने राजर्षि हरि को प्राप्त हुये हैं- *{तृतीय अंश}*
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*२१.रघु-* रघु अयोध्या के राजा हुए, इनका वंश रघुवंश नाम से प्रसिद्ध है । रघुजी ने दिग्विजय करके विश्वजित यज्ञ किया था । उसमें अपना सर्वस्व दक्षिणा में दे दिया था । उसी समय कौत्स नामक ब्रह्मचारी ने वरतन्तु मुनि से समस्त विद्या पढ़कर कई बार कहा- “गुरु दक्षिणा की आज्ञा दीजिये ।” तब वरतन्तु मुनि ने कहा- “चौदह कोटि सुवर्ण मुद्रा ला दो ।” कौत्स रघु जी के पास गया । 
रघु ने मृत्तिका पात्र से कौत्स को पाद्यार्थ(चरण धोने का जल) देकर आने का कारण पूछा- कौत्स को शंका हो गई, जब इनके पास धातु पात्र भी नहीं है तब स्वर्ण मुद्रा होना संभव ही नहीं है किन्तु पूछने पर कहा- “चतुर्दश कोटि स्वर्ण मुद्रा गुरुजी को दक्षिणा रूप में देना है, उनके लिये ही आया था ।” 
रघुजी ने स्वर्ण के लिये कुबेर पर चढ़ाई करने का विचार किया तब रात्रि में राज कोश के पास ही कुबेरजी ने स्वर्ण की वर्षा करदी । प्रातः कौत्स को कहा- ‘सब ले जाओ’ उसने कहा- “चतुर्दश कोटि ही लूंगा ।” कौत्स स्वर्ण मुद्रा लेकर तथा आशीर्वाद देकर चले गये, आपके वंश में ही भगवान् राम ने अवतार लिया है । आप बड़े उदार भगवद् भक्त राजर्षि हुये हैं ।
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*२२.रुक्मांगद-* रुक्मांगदजी की पुष्प वाटिका बड़ी सुन्दर थी और सुगंधित पुष्पों से पूर्ण रहती थी । स्वर्ग की अप्सरायें भी रात्रि में उस वाटिका के पुष्प लेने आती थीं । एक दिन एक अप्सरा के पैर में बैंगन का कांटा चुभ गया । उससे पुण्य नष्ट हो जाने से अप्सरा की आकाश गमन की शक्ति नष्ट हो गई और वह वाटिका में ही रह गई । मालियों से यह जानकर राजा रुक्मांगद वहाँ आये और पूछा-आपके स्वर्ग जाने का कोई उपाय हो तो बताओ, जिससे आपको स्वर्ग में भेज दिया जाय । 
उसने कहा- एक एकादशी व्रत का फल मुझे कोई दे दे तो मैं स्वर्ग में जा सकती हूं । राजा ने कहा- इस व्रत का तो नाम भी इस नगर में कोई नहीं जानता । अप्सरा ने कहा- “कल एकादशी थी, कोई किसी कारण भूखा रह गया हो तो उसी का फल मुझे दिलवा दें, तो भी मैं स्वर्ग में जा सकती हूं ।” तब राजा ने नगर में डौंडी फिरवाई- कल दिन रात कोई भूखा रहा हो, वह राजा के पास चले, उस पर राजा अति प्रसन्न होंगे । 
एक वैश्य की दासी को किसी कारण से वैश्य ने पीटा तथा रोटी भी न दी और वह जगती भी रही । राजा ने उससे अज्ञात व्रत का फल दिलवा दिया । उससे अप्सरा को आकाश गमन की शक्ति पुनः प्राप्त हो गई और वह निज लोक को चली गई । एकादशी व्रत का ऐसा प्रत्यक्ष फल देखकर राजा ने अपने पुर और राज्य को आज्ञा दे दी- एकादशी को जो अन्न खायगा, उसे प्राणान्त दण्ड दिया जायगा । इससे सारे देश में व्रत, जागरण और नाम संकीर्तन का भारी प्रचार हुआ था । राजा के सहित सभी भगवद् भजन करके प्रभु को प्राप्त हुये हैं । रुक्मांगद महान् राजर्षि हुये हैं । 
*२३.कुरु-* सूर्य कन्या तपती के गर्भ से सम्राट संवरण द्वारा कुरुजी का जन्म हुआ था । इनके नाम से ही कुरु जांगल देश प्रसिद्ध हुआ है । इनकी तपस्या से कुरु क्षेत्र प्रदेश पवित्र हुआ है । इनकी इच्छा थी कुरुक्षेत्र भूमि में मरे वह स्वर्ग में जाय । इसलिये ये तपस्या करते हुये कुरुक्षेत्र की चौरासी कोस भूमि को जोतते थे । 
इनके पास कई बार इन्द्र वर देने को आये किन्तु इनकी इच्छा के समान वर न दिया । अन्त में कहा-जो युद्ध में मरेगा वह स्वर्ग में जायगा । दूसरे स्थानों में युद्ध में वीरता से मरता है वह स्वर्ग में जाता है । कुरुक्षेत्र में चाहे कायरता से भी युद्ध में मरेगा वह भी स्वर्ग में जायगा, यही विशेषता है । आप महान् भगवद् भक्त राजर्षि हुए हैं ।
*२४.गाधि-* गाधि कुशनाभ(कुशिक) के पुत्र और विश्वामित्र के पिता थे, कान्यकुब्ज देश के राजा थे । अपने पुत्र विश्वामित्र को राज्य देकर साधना में संलग्न हुये थे । ये महान् पवित्र राजर्षि भक्त थे ।
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*२५.भरत-* भरत दुष्यन्त के द्वारा शकुन्तला के गर्भ से उत्पन्न हुये थे । इन्हीं से भरत वंश चला है । इन्हीं से शासित होने से इस देश का नाम भारत हुआ है । इनने बचपन में ही बड़े बड़े दानवों, राक्षसों और सिंहादि का दमन किया था, इससे इनका नाम ऋषियों ने सर्वदमन रखा था, ये महान् राजर्षि हुये हैं ।
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*२६.(क)सुरथ-* चम्पक पुरी के राजा हंसध्वज, के पांच पुत्र थे-सुबल, सुरथ, सम, सुदर्शन और सुधन्वा । सुधन्वा के समान ही सुरथजी भी भगवान् के भक्त थे । आप भी सुधन्वा के साथ युद्ध में गये थे और अर्जुन के साथ महान् युद्ध किया था । अन्त में अर्जुन के बाण से सुरथ का शिर कटा और अर्जुन की छाती में जा लगा । उससे अर्जुन मूर्छित हो गये थे । फिर वह शिर कृष्ण के चरणों में आ गिरा । कृष्ण भगवान् ने अर्जुन को सचेत किया और सुरथ के शिर को गरुड़जी के द्वारा प्रयाग में डलवाया । फिर शिवजी ने इस भक्तराज के शिर को अपनी गल-माल में रख लिया । सुरथजी महान् भाग्यशाली भगवद् भक्त राजर्षि हुये हैं । 
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*२६.(ख)सुरथ-* दूसरे राजर्षि सुरथ कुण्डलपुर के राजा थे । आपके राज्य में सब अपनी मर्यादा में रहते थे । कोई भी प्रकार का पाप राज्य में नहीं होता था । सब भगवान् के गुण गान करते थे । सब निष्पाप थे । एक समय स्वयं यमराज जटाधारी मुनि का वेष बनाकर राजा की भक्ति की परीक्षा लेने राजा के पास आये थे । यम ने देखा, राज सभा तो साक्षात् सत्संग भवन बन रहा है । 
तपस्वी को देखकर राजा खड़े हो गये और उनको ऊंचे आसन पर बैठाकर पूजन करने के बाद कहा-“आपके दर्शन से आज मैं धन्य हूँ । आप अब हरि कथा सुनाइये ।” यह सुनकर हँसते हुये मुनि बोले-“कौन हरि, किसकी कथा, यह मूर्खों जैसी क्या बात करते हो? संसार में कर्म ही प्रधान है । जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है । तुम भी सत्कर्म किया करो । व्यर्थ हरि-हरि क्यों पुकारते हो ।” 
मुनि की बात से राजा को क्षोभ हुआ । वे नम्रता से बोले- कर्मों का सर्वोत्तम फल भोगने वाले इन्द्र और ब्रह्मा भी गिरते हैं किन्तु हरि भक्त का पतन नहीं होता । भगवान् की निन्दा करने वाले को यमदूत घोर दंड देते हैं । अब यमराज प्रकट हो गये और राजा को वर माँगने के लिये कहा-राजा ने उनके चरणों में प्रणाम करके कहा-“राम अवतार लेकर जब तक वहाँ नहीं आवें तब तक मेरी मृत्यु नहीं हो ।” यमराज तथास्तु कहकर अन्तर्धान हो गये । 
फिर जब रामश्वमेध का घोड़ा राज्य की सीमा के पास आया तब उसे पकड़ा और अपने दश पुत्रों के साथ युद्ध में उतरा । रामास्त्र के प्रयोग से राजा ने शत्रुघ्न, पुष्कल, अंगद और हनुमान् आदि सबको बाँध लिया । राजा के कहने स हनुमान् जी ने राम का स्मरण किया तब राम मुनियों के साथ पधारे । राजा रामजी के चरणों में पड़ गया । 
रामजी ने राजा की भक्ति देखकर राजा को चतुर्भुज रूप का दर्शन कराया और हृदय से लगाते हुये कहा- तुम्हारी इस रण पूजा से में प्रसन्न हूँ । बँधे हुये वीर राम की दृष्टि पड़ते ही खुल गये । रामजी चार दिन राजा के यहाँ रहे फिर मुनियों के साथ अयोध्या चले गये । सुरथजी राज्य अपने पुत्र चम्पक को देकर सेना के साथ घोड़े की रक्षा के लिये शत्रुघ्नजी के साथ हो गये । फिर शेष जीवन रामजी की सेवा में ही व्यतीत किया । आप महान् भक्त राजर्षि हुये हैं । 
*२७.सुमतिऋभु-* बुद्धिमान् ऋभुजी ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक हैं । आप स्वभाव से ही ब्रह्म तत्वज्ञ हैं तथा निवृत्ति परायण हैं । सनत्सुजात के शिष्य हैं । पुलस्त्य के पुत्र निदाघ के आप गुरु हैं । ऋभु की क्षमाशीलता से प्रसन्न होकर सनकादिकों ने ब्रह्मा के सामने इनका नाम क्षमा का एक अक्षर जोड़कर ऋभुक्ष रख दिया था तब से इन्हें साम्प्रदायिक लोग ऋभुक्षानन्द के नाम से भी स्मरण करते हैं । 
ऋभुजी जब बालक थे तब एक दिन शंकरजी के मंदिर में शिवलिंग को बहुत चिकना और सुन्दर देखकर पूजा के निमित्त अपने हाथ में एक फूल था उसको शिवलिंग पर चढ़ाकर कहा-“नमः शिवाय नमः शिवाय ।” तब मंदिर में आकाश वाणी सुनाई दी “वर मांग” । ऋभु बोले-“आप से भी जो बड़े हों उन परमपुरुष का दर्शन करा दीजिये ।” तब सहसा स्वयं ही श्री हरि ऋभु के सामना प्रकट हो गये । शिवजी ने भी प्रकट होकर कहा- “तुम जिन्हें खोजते थे वे तुम्हारे सामने स्थित हैं ।” हरिहर में दर्शन से ऋभुजी कृतार्थ हो गये ।
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*२८.ऐल(पुरुरवा)-* राजा पुरुरवा का ही नाम ऐल है । इनकी माता इला और पिता बुध हैं । माता का नाम इला होने से इनका नाम ऐल प्रसिद्ध हो गया । इला और बुद्ध की कथा पुराणों के विचित्र रूप से मिलती है । इला एक महिना स्त्री और एक महिना पुरुष सुध्युमन रुप से रहती थी । इला पुत्र ऐल उर्वशी अप्सरा के साथ मृत्यु लोक में बहुत दिनों तक रहे । जब वह चली गई तब यज्ञ करके गन्धर्व लोक में जाकर उसके संग रहे । फिर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक में आये तब पिछली बातें स्मरण होने से इनको वैराग्य हो गया । इससे भगवद् भजन करके भगवान् की कृपा के पात्र भगवद् भक्त राजर्षि हो गये । 
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*२९.अमूर्ति जी(अमूर्तरया)-* अमूर्तरया एक प्राचीन नरेश, जिनके पुत्र राजा गय हुये हैं । इन्हें पुरु से खंग प्राप्त हुई थी । ये महान् राजर्षि थे । प्राचीन काल में एक अमूर्त नाम के भक्त और भी हुये हैं । ये बचपन से विरक्त और भगवान् के प्रेमी भक्त थे । इनको हरिदास नाम से भी बोलते थे । दोनों ही भगवान् के भक्त हुये हैं । 
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*३०.रै(रय)-* रय जी राजा पुरुरवा के पुत्र थे, इनकी माता उर्वसी अप्सरा हैं । १.जय, २.विजय, ३.रय, ४.आयु, ५.श्रुतायु, ६.सत्यायु ये छः सहोदर भ्राता थे, इनमें रयजी बड़े प्रतापी राजर्षि भगवद् भक्त हुए हैं । 
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*३१.गै(गय)-* भगवान् की भक्ति में रुचि रखने वाले गयजी राजर्षि अमूर्तरया के पुत्र और राजर्षियों में श्रेष्ठ माने जाते हैं । इन्होंने सम्पूर्ण तीर्थों की यात्रा की थी और वहां के पावन जल के स्पर्श से तथा महात्माओं के दर्शन से प्रचुर धन एवं यश लाभ किया था ।
(क्रमशः)

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