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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४४४ - दीपचन्दी
तेरी आरती ए, जुग जुग जै जै कार ॥टेक॥
जुग जुग आत्म राँम, जुग जुग सेवा कीजिये ॥१॥
जुग जुग लँघे पार, जुग जुग जगपति कों मिले ॥२॥
जुग जुग तारणहार, जुग जुग दर्शन देखिये ॥३॥
जुग जुग मँगलचार, जुग जुग दादू गाइये ॥४॥
(प्राण उधारणहार ॥)
इति राग धनाश्री सम्पूर्ण ॥२७॥पद ३०॥
इति श्री सँत प्रवर दादू दयालुजी महाराज की अनुभव वाणी सम्पूर्ण ॥
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हे निरंजन देव ! आपकी आरती प्रतियुग में भक्त - जन करते हुये बारँबार जय ध्वनि करते हैं ।
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प्रतियुग में ही जीवात्मा और परमात्मा रहते हैं, प्रतियुग में ही भक्ति करनी चाहिए ।
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प्रतियुग में ही परब्रह्म की आरती करके प्राणी सँसार को लाँघ कर पार गये हैं और प्रतियुग में ही विश्वपति राम को मिले हैं ।
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प्रतियुग में ही प्रभु भक्तों को सँसार से तारने वाले के रूप में स्थित रहते हैं ।
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प्रतियुग में ही उनका दर्शन करो ।
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परब्रह्म की आरती गाने से प्रतियुग में ही मँगलाचार रहता है । अत: प्रतियुग में ही परब्रह्म की आरती गानी चाहिए । यह आरती प्राणों का उद्धार करती है ।
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पद्य गिरा पर गद्य मय, रच कर तिलक विशाल ।
प्रणति करूँ श्री दादू को, करिये कृपा दयाल ॥१॥
क्लान्त निहार त्रितापन से भव,
आय अनुग्रह दादू करा है ।
लाइ गिरामय श्रेष्ठ लता,
रस ज्ञान स्वरूप निगूढ़ धरा है ॥
ताहि निचोड़ "नारायण” ने यह,
गद्य सुपात्रहि माँहिं भरा है ।
पान करो सु प्रमाद विसार,
परात्म प्रदर्शक हेतु खरा है ॥२॥
दोय सहस सत्रह अधिक, विक्रम अषाढ मास ।
शुक्ला छठ गुरुवार को, आरंभ ले सुख आस ॥३॥
दोय सहस अट्ठारह, विक्रम वैशाख मास ।
शुक्ला तेरस शुक्र को, पूरण सहित लास ॥४॥
श्री कृष्ण कृपा कुटीर में, पुष्कर तीरथ माँहिं ।
दादू गिरार्थ प्रकाशिका, पूर्ण पढ़े दुख जाँहिं ॥५॥
इति श्री पूज्य चरण स्वामी धनराम जी के शिष्य स्वामी नारायण दास कृत
श्री दादू गिरार्थ प्रकाशिका टीका सम्पूर्ण ।
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