रविवार, 10 जनवरी 2021

*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ८५/८८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ८५/८८*
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देह बिराजै३ साध की, प्रेम भगति रस रांचि४ ।
कहि जगजीवन जागि जन, अलख निरंजन जांचि ॥८५॥
(३. बिराजै=शोभित होती है) (४. रांचि=अनुरक्त हो कर)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु साधु जन की देह में ही विराजते हैं वे प्रेम भक्ति से परिपूर्ण हैं । हे जीव अज्ञान से जागकर प्रभु को पहचान ।
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ध्रू निहचै५ हरि नांउ लियां, सुर सधै६ सुर राज ।
कहि जगजीवन दुती संधि, रांम भगति रस काज ॥८६॥
{५. ध्रू निहचै=अन्तिम सीमा तक(दृढ) निश्चय} (६. सुर सधै=योगसाधना पूर्ण हो)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि बेहद तक स्मरण हो । तब ही पूर्णता है जैसे स्वर के रहस्य को जान लेने से स्वर सध जाते हैं । संत कहते हैं कि योग दूसरे स्थान पर है जहाँ से हमें आनंद रुपी सभी कार्यों का साधन स्मरण मिलता है, या राम भक्ति मिलती है ।
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तप थैं जप थैं ग्यांन थैं, विरह जोग निज सार । 
कहि जगजीवन बिरह थैं, प्रेम भगति पिव लार ॥८७॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि तप से, जप से, ज्ञान से, प्रभु का विरह होता है, संत कहते हैं कि विरह से ही प्रेम भक्ति आती है जिसके प्रभाव से जीव प्रभु के अनुगामी होते हैं ।
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रांम भगति तहां रांमजी, रांम भगति सो कूंण ।
कहि जगजीवन हरि मंहि गल रहे, जैसे पाणी लूंण१ ॥८८॥
{१. जैसे पांणी लूंण=जैसे जल में लवण(=नमक) मिल जाता है}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ भक्ति है, वहां ही प्रभु है और राम भक्ति जैसा संसार में और कुछ भी नहीं है अतः परमात्मा में ऐसै मिल जाओ जैसे पानी में नमक मिलता है ।
(क्रमशः)

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