🌷🙏*🇮🇳 #daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏 *卐 सत्यराम सा 卐* 🙏🌷
🌷🙏 *#श्री०रज्जबवाणी* 🙏🌷
*दादू ध्यान धरे क्या होत है, जो मन नहीं निर्मल होइ ।*
*तो बग सब ही उद्धरैं, जे इहि विधि सीझै कोइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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सांई लहिये साँच में, ता में फेर न सार ।
तो रज्जब क्या धारिये, इन भेषों का भार ॥११३॥
प्रभु तो सत्य-साधन में लगे रहने से ही मिलते हैं, इसमें परिवर्तन को अवकाश नहीं है, यह सार बात है, तब इन भेषों के बोझ का क्या धारण किया जाय ?
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जे तत्त्व प्राप्ति तिलक में, माला पहर्यों मेल ।
तो रज्जब परसे पीव सब, सहज भया यहु खेल ॥११४॥
यदि तिलक लगाने से ही ज्ञान प्राप्त हो जाय और माला पहनने से ही प्रभु मिल जाय, तब तो सभी प्रभु से मिल सकते हैं, इस प्रकार तो यह प्रभु प्राप्ति रूप खेल बहुत सहज हो जाता है ।
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जे भेष धरे भव पार ह्वै, दरशण१ दे दीदार२ ।
यूं रज्जब सांई मिले, तो सभी पहुंचे पार ॥११५॥
यदि भेष धारण करने से ही संसार से पार हो जाय और भेष१ से ही प्रभु दर्शन२ दे दें इस प्रकार प्रभु प्राप्त हो तब तो सभी संसार के पार पहुँच सकते हैं ।
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शिर मुंडाय साधू भये, माला मेल रु संत ।
रज्जब स्वांगी स्वांग धरि, माटी लाय महंत ॥११६॥
शिर मुंडवा कर साधु हो रहे हैं, माला गले में डालकर संत बन रहे हैं और गोपी तलाई की मिट्टी का तिलक लगाकर महंत बन रहे हैं । इस प्रकार भेषधारी भेष बनाकर ही अपने को कृतकृत्य मान लेते हैं किंतु भजनादि साधन बिना भेष से भगवान कहां मिलते हैं ।
(क्रमशः)
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