गुरुवार, 7 जनवरी 2021

= *स्वांग का अंग १३२(१२५/१२८)* =

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*कागद का मानुष किया, छत्रपति सिरमौर ।*
*राजपाट साधै नहीं, दादू परिहर और ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*स्वांग का अंग १३२*
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वदन१ सदन२ चित्रे चितवी३, डरै न इन्द्री चोर । 
रज्जब सूते स्वाँग बल, शक्ति न संपति भोर४ ॥१२५॥
मकान२ पर वीरों के चित्र देख३ कर चोर नहीं डरते, चित्र के वीरों के भरोसे सूते रहने से प्रात:४ संपत्ती नहीं मिलती । वैसे ही मुख१ पर तिलक का चित्र और शरीर पर भेष देखकर इन्द्रियाँ नहीं डरती, भेष के भरोसे रहने से सब शक्तियों इन्द्रियों द्वारा विषयों में क्षीण हो जाती है । 
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भजन भरोसे छूटिये, भेष भरोसा झूठ । 
रज्जब ज्यों थी त्यों कही, रजू१ होहु भावे रूठ२ ॥१२६॥
भेष का भरोसा मिथ्या है, भजन के भरोसे ही संसार से मुक्त हो सकते हैं, जैसे बात थी वैसी ही हमने कही है, इसमें चाहे तुम प्रसन्न हो या रुष्ट हो । 
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आशा बहु आसण करै, भूख१ बणावै भेख । 
रज्जब सादे साँच बिन, कबहु न मिले अलेख ॥१२७॥
आशा होने से ही बहुत आसन करते हैं और इच्छा होने से ही भेष१ बनते हैं किंतु सादगी और सच्चाई के बिना लेखबद्ध नहीं होने वाले ब्रह्म की प्राप्ति कभी नहीं होती । 
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रज्जब भूख१ भेष बहुते करे, तामें फेर न सार । 
वपु बदल्या बावन बली, बलि माँगण की वार ॥१२८॥
इच्छा१ से बहुत से भेष करते हैं, इसमें परिवर्तन को अवकाश नहीं यह सार बात है । देखो, बलि से माँगंने के समय बलवान वामन ने भी शरीर तथा शरीर का भेष बदला था । 
(क्रमशः)

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