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*जा कारण बहु फिरिये,*
*कर तीरथ भ्रमि भ्रमि मरिये ।*
*सहजैं ही सो चीन्हा,*
*हरि चीन्ह सबै सुख लीन्हा ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. ३०८)
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४*
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दह१ दिशि दौड़े दूरि को, भ्रम भ्रम तीरथ न्हाहिं ।
रज्जब राम न सूझ ही, जो काया माँहिं ॥९॥
दौड़ दौड़ कर दूर के दशों१ दिशा के तीर्थ स्थानों में जाते हैं और बारंबार भ्रमण करके स्नान करते हैं, पर जो इस शरीर में ही है वह आत्माराम उन अज्ञानियों को नहीं दीखता ।
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पण्डित कहै सु पावनी, गंगा गोविन्द भांति ।
ता में न्हाये नीच कुल, तो क्यों न करै द्विज पांती१ ॥१०॥
पण्डित गंगा को गोविन्द के समान पवित्र करने वाली कहते हैं, तब उसमें स्नान करने पर नीच कुल के साथ एक पंक्ति१ में बैठ कर ब्राह्मण भोजन क्यों नहीं करते ?
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ढैढा डूमी नांचुकी१, अड़सठ तीर्थ न्हाय ।
तो रज्जब सुणि साँच यहु, नाम निरंजन माय ॥११॥
ढेढ, डूम और नाचने१ वाले नट आदि ६८ तीर्थो मे स्नान करने का परिश्रम करते हैं, तब हमारी यह सत्य बात सुनकर जिसमें कुछ श्रम नहीं है वह निरंजन राम का नाम गान करो, अवश्य कल्याण होगा ।
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मनिष१ मीन सम व्है रहे, अड़सठ तीरथ न्हाय ।
पै रज्जब रज२ नहिं ऊतरै, दुरमति वास न जाय ॥१२॥
मनुष्य१ मच्छी के समान हो रहे हैं, जैसे मच्छी जल में रहती है वैसे ही मनुष्य ६८ तीर्थों के जल में स्नान करते रहते हैं किंतु निरंतर जल में रहने पर भी मच्छी की दुर्गंध नहीं जाती, वैसे ही निरंतर तीर्थ स्नान करते रहने पर भी मनुष्य का पाप२ नहीं उतरता और दुर्बुद्धि नष्ट नहीं होती ।
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जन रज्जब तन तूंबड़ी, नर देखो निरताय ।
कुचिल न कड़वा पण गया, अड़सठ तीरथ न्हाय ॥१३॥
हे नरों ! विचार करके देखो, यह शरीर कड़वी तुम्बी के समान है, अड़सठ तीर्थो का स्नान करने पर भी तुम्बी का कड़वा पन नहीं जाता । वैसे ही ६८ तीर्थो के स्नान से देह का मैलापन नहीं जाता ।
(क्रमशः)

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