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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४३८ - फरोदस्त ताल
गोविन्द पाया मन भावा,
अमर कीये संग लीये ।
अक्षय अभय दान दीये,
छाया नहिं माया ॥टेक॥
अगम गगन अगम तूर,
अगम चँद अगम सूर ।
काल झाल रहे दूर,
जीव नहीं काया ॥१॥
आदि अंत नहीं कोइ,
रात दिवस नहीं होइ ।
उदय अस्त नहीं दोइ,
मन ही मन लाया ॥२॥
अमर गुरु अमर ज्ञान,
अमर पुरुष अमर ध्यान ।
अमर ब्रह्म अमर थान,
सहज शून्य आया ॥३॥
अमर नूर अमर बास,
अमर तेज सुख निवास ।
अमर ज्योति दादू दास,
सकल भुवन राया ॥४॥
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मनभावन गोविन्द को हमने प्राप्त कर लिया है । उन्होंने हमें अभेद रूप से अपने संग लेकर हमको अमर कर दिया है । अक्षय आनन्द और अभय पद भी प्रदान किया है । उनके स्वरूप में आभास रूप छाया और माया दोनों ही नहीं है ।
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वे हृदयाकाश से ऊपर तथा अनाहत - नगाड़े की ध्वनि से आगे हैं । चन्द्र - सूर्य के प्रकाश से अगम्य हैं । काल की लहर उनसे दूर ही रहती है । उनमें जीवत्व भाव नहीं है, न वे स्थूलशरीर रूप ही हैं ।
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उनके स्वरूप का आदि अंत किसी प्रकार भी नहीं ज्ञात होता । न उनके पास रात्रि - दिन रूप काल - भेद ही है वो उनके स्वरूप में अज्ञान रूप रात्रि और इन्द्रिय ज्ञान रूप दिन नहीं हैं । उनके पास चन्द्र - सूर्यादि उदय - अस्त नहीं होते व उनके स्वरूप में ज्ञान का उदय - अस्त नहीं होता, वे नित्य ज्ञान स्वरूप हैं । मन के द्वारा उनका चिन्तन करके हमने अपना मन उनमें लगाया है ।
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उन अमर गुरु देव का ज्ञान अमर करता है तथा उन अमर पुरुष का ध्यान भी अमर करता है । वे अमर ब्रह्म ही देवताओं के आश्रय रूप स्थान हैं । वे विकार शून्य ब्रह्म निर्विकल्प समाधि रूप सहजावस्था में ज्ञान - नेत्रों द्वारा देखने में आये हैं ।
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उनका स्वरूप, महिमा रूप वासस्थान, प्रताप और प्रकाश अमर है । वे सँपूर्ण भुवनों के राजा हैं । मुझ दास का उन नित्यानन्द स्वरूप में ही निवास है ।
(क्रमशः)

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