मंगलवार, 19 जनवरी 2021

= *तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४ (१४/१८)* =

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*तप तीरथ तूँ व्रत स्नाना,* 
*तुम हीं ज्ञाना तुम हीं ध्याना ॥*
*वेद भेद तूँ पाठ पुराणा,* 
*दादू के तुम पिंड पराणा ॥*
(श्री दादूवाणी ~ पद. १०६)
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४*
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जाहर१ नई न जान ही, पुरुष तज्या सु प्रवीन । 
रज्जब राम न आदरी, यों२ सौपि समुद्र हिं दीन३ ॥१४॥
यह बात प्रकट१ है, नई नहीं है, सभी बुद्धिमान जानते हैं, जब गंगा ने सब प्रकार निपुण पुरुष विष्णु को छोड़ा तब राम ने उसका आदर नहीं किया, ऐसे२ समुद्र को सौप दिया३ । 
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गंगा गोविन्द चरण तज, खार समुद४ को जाय । 
रज्जब उधली१ उदक२, अध३ उतरै क्यों न्हाय ॥१५॥
गंगा गोविन्द के चरणों को छोड़ कर क्षार समुद्र४ को जाती है, पति को छोड़ कर भागने१ वाली के जल२ में स्नान करने से पाप३ कैसे उतरेंगे ?
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हरि से हुई हरामखोरि, हाड़ डलाये माँहिं । 
रज्जब जिव जाणे नहीं, गाफिल गंगा जाँहिं ॥१६॥
हरि से हरामखोर होकर अर्थात सेवा छोड़कर समुद्र में चली गई, इसी से उसमें हाड़ डालने का आदेश दिया है । असावधान अर्थात अज्ञानी जीव इस रहस्य को नहीं जानते, इसलिये ही गंगा स्नान को जाते हैं । 
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धारा१ तीरथ धार तल२, त्यों सत जत सुमिरण राम । 
रज्जब कारज शीश परि, खित३ क्षेत्रहुं नहिं काम ॥१७॥
तलवार की धार१ के नीचे२ आना धारा तीर्थ है । वैसे ही सत्य, ब्रह्मचर्य और राम का स्मरण रूप तीर्थ है । धारा तीर्थ वा साधन तीर्थ में कार्य भार अपने शिर के उपर ही होता है । पृथ्वी३ के क्षेत्र से कोई काम नहीं होता । 
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तन को तीर्थ बहुत है, मन को तीरथ तीन । 
सत जत सुमिरण सलिल शुध, रज्जब काढे बीन ॥१८॥
शरीर के लिये शुद्ध-जल के तीर्थ बहुत हैं । मन के लिये तीन तीर्थ हैं । सत्य पालन, ब्रह्मचर्य, हरि स्मरण ये हमने चुनकर निकाले हैं । 
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४ समाप्तः ॥सा. ४३१४॥
(क्रमशः)

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