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*आये एकंकार सब, साँई दिये पठाइ ।*
*दादू न्यारे नांम धर, भिन्न भिन्न ह्वै जाइ ॥*
(#श्रीदादूवाणी ~ दयानिर्वैरता का अंग)
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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“पहले ही से मुझे सब दिखा दिया जाता है । बटतल्ले में मैंने गौरांग के संकीर्तन का दल देखा था । उसमें शायद बलराम को देखा था और तुम्हें भी शायद देखा था ।
“मैंने गौरांग का भाव जानना चाहा था । उसने दिखाया, उस देश में – श्यामबाजार में । पेड़ पर और चारदीवार पर आदमी ही आदमी – दिनरात साथ साथ आदमी । सात दिन शौच के लिए जाना भी मुश्किल हो गया ! तब मैंने कहा, माँ, बस, अब रहने दो । इसीलिए अब भाव शान्त है ।
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“एक बार और आना होगा । इसीलिए पार्षदों को सब ज्ञान मैं नहीं देता । (हँसते हुए) तुम्हें अगर सब ज्ञान दे दें, तो फिर तुम लोग सहज ही मेरे पास क्यों आओगे ?
“तुम्हें मैं पहचान गया, तुम्हारा चैतन्य-भागवत पढ़ना सुनकर । तुम अपने आदमी हो । एक ही सत्ता है, जैसे पिता और पुत्र । यहाँ सब आ रहे हैं, जैसे कल्मी की बेल - एक जगह पकड़कर खींचने से सब आ जाता है । परस्पर सब आत्मीय हैं, जैसे भाई भाई । राखाल, हरीश आदि जगन्नाथ-दर्शन के लिए पुरी गए हैं, और तुम भी गए हो, तो क्या कभी ठहराव अलग अलग हो सकता है ?
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“जब तक तुम भूले हुए थे, अब अपने को पहचान सकोगे । वे गुरु के रूप में आकर जता देते हैं ।
“नागे ने बाघ और बकरी की कहानी कही थी । एक बाघिन बकरियों के झुण्ड पर टूट पड़ी । किसी बहेलिये ने दूर से उसे देखकर मार डाल । उसके पेट में बच्चा था, वह पैदा हो गया । वह बच्चा बकरियों के बीच में बढ़ने लगा । पहले बच्चा बकरियों का दूध पीता था । इसके बाद जब कुछ बड़ा हुआ तब घास चरने लगा और बकरियों की तरह ‘में में’ करने लगा ।
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धीरे धीरे वह बहुत बड़ा हो गया और तब भी वह घास ही चरता और ‘में में’ करता । कोई जानवर जब आक्रमण करता, तब बकरों की तरह डरकर भागता ! एक दिन एक भयंकर बाघ बकरियों पर टूट पड़ा । उसने आश्चर्य में आकर देखा, उनमें एक बाघ भी घास चर रहा है और उसे देखकर बकरियों के साथ वह भी दौड़कर भागा । तब बकरियों से कुछ छेड़छाड़ न करके घास चरनेवाले उस बाघ को ही उसने पकड़ा । वह ‘में में’ करने लगा और भागने की कोशिश करता गया ।
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तब बाघ उस पानी के किनारे खींचकर ले गया और उससे कहा, ‘इस पानी में अपना मुँह देख । हण्डी की तरह मेरा मुँह जितना बड़ा है, उतना ही बड़ा तेरा भी है ।’ फिर उसके मुँह में थोड़ा सा माँस खोंस दिया । पहले वह किसी तरह खाता ही न था, फिर कुछ स्वाद पाकर खाने लगा । तब बाघ ने कहा, ‘तू बकरियों के बीच में था और उन्ही की तरह घास खाता था ! धिक्कार है तुझे’ तब उसे बड़ी लज्जा हुई ।
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“घास खाना है कामिनी-कांचन लेकर रहना । बकरियों की तरह ‘में में’ करना और भागना है – सामान्य जीवों की तरह आचरण करना । बाघ के साथ जाना है – गुरु, जिन्होंने ज्ञान की आँखें खोल दीं, उनके शरणागत होना, उन्हें ही आत्मीय समझना । अपना सच्चा मुँह देखना है – अपने स्वरूप को पहचानना ।”
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श्रीरामकृष्ण खड़े हो गए । चारों ओर सन्नाटा है । सिर्फ झाऊ के पेड़ों की सनसनाहट और गंगाजी की कलकल-ध्वनि सुन पड़ रही है । वे रेलिंग पार करके पंचवटी के भीतर से अपने कमरे की ओर मणि से बातचीत करते हुए जा रहे हैं । मणि मन्त्रमुग्ध की तरह पीछे पीछे जा रहे हैं ।
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पंचवटी में आकर, जहाँ उसकी एक डाल टूटी पड़ी है, वहीँ खड़े होकर, पूर्वास्य हो, बरगद के मूल पर बँधे हुए चबूतरे पर सिर टेककर प्रणाम किया । यह स्थान उनकी साधना का स्थान है । यहाँ पर उन्होंने व्याकुल होकर कितना क्रन्दन किया है कितने ही ईश्वरी रूपों के दर्शन किए हैं, और माता के साथ कितनी बातें की है ! क्या इसीलिए जब वे यहाँ आते हैं तो प्रणाम करते हैं ?”
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बकुलतल्ला होकर वे नौबतखाने के निकट आए । मणि साथ ही हैं ।
नौबतखाने के पास आकर हाजरा को देखा । श्रीरामकृष्ण उनसे कह रहे हैं – “अधिक न खाते जाना और बाह्य शुद्धि की ओर इतना ध्यान देना छोड़ दो । जिन्हें बेकार यह धुन सवार रहती है उन्हें ज्ञान नहीं होता । आचार उतना अहि चाहिए जितने की जरूरत है । बहुत ज्यादा अच्छा नहीं ।” श्रीरामकृष्ण ने अपे कमरे में पहुँचकर आसन ग्रहण किया ।
(क्रमशः)

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