रविवार, 17 जनवरी 2021

= *तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४ (५/८)* =

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*दादू केई दौडे द्वारिका, केई काशी जांहि ।*
*केई मथुरा को चले, साहिब घट ही माँहि ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*तीर्थ तिरस्कार का अंग १३४* 
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रज्जब इक आकाश का, अम्बु१ सु अड़सठ मांहिं । 
सकल निवाणों२ नीर सो, किहिं३ जल पातक४ जाहिं ॥५॥
एक ही आकाश का जल ६८ तीर्थो में है, वही जल सभी जलाशयों में है, फिर किसके जल से पाप नष्ट होता है अर्थात किसी से भी नहीं नष्ट होता । 
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अड़सठ के जल बूड़िये, ऊंडे१ देखा जाय । 
रज्जब यूं तीरथ तजे, मांहि मगरमछ खाय ॥६॥
६८ तीर्थो के गहरे१ जल में जाकर देखो, डूब जाओगे या भीतर मगरमछ खा जायेगा, ऐसा देखकर ही हमने तीर्थ करना छोड़ा है । 
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नाम बिना निर्मल नहीं, बहु विधि करै उपाय । 
रज्जब रज१ किस की गई, दह२ दिशि तीरथ न्हाय ॥७॥
बहुत प्रकार के उपाय करने पर भी प्राणी ईश्वर नाम चिन्तन के बिना निर्मल नहीं होता, दशों१ दिशाओं के तीर्थो के स्नान करने से किसका पाप२ गया है ? 
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सुती सुत उरलाय करि, स्वप्ने भरमी मात । 
यूं रज्जब पीव१ जीव कन२, भूले दह३ दिशि जात ॥८॥
अपने पुत्र को हृदय के लगाकर सोई हुई माता स्वप्न में भ्रम में पड़कर पुत्र को खोज रही हो, वैसे ही प्रभु१ जीव के पास२ हृदय में ही है किंतु जीव भ्रमवश भूले हुए होने होने से उसके लिये दशों३ दिशा में तीर्थो में जाते हैं ।
(क्रमशः)

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