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*फल पाका बेली तजी, छिटकाया मुख मांहि ।*
*सांई अपना कर लिया, सो फिर ऊगै नांहि ॥*
*(श्री दादूवाणी ~ परिचय का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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(३)
*‘डुबकी लगाओ’*
शुक्रवार, २१ दिसम्बर १८८३ । प्रातःकाल श्रीरामकृष्ण अकेले बेल के पेड़ के नीचे मणि के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । साधना के सम्बन्ध में अनेक गुप्त बातें तथा कामिनी-कांचन के त्याग की बातें हो रही हैं । फिर कभी कभी मन ही गुरु बन जाता है – ये सब बातें बता रहे हैं ।
भोजन के बाद पंचवटी में आए हैं – वे सुन्दर पीताम्बर धारण किए हुए हैं । पंचवटी में दो-तीन वैष्णव बाबजी आए हैं – एक बाउल साधु भी हैं ।
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तीसरे पहर एक नानकपन्थी साधु आए हैं । हरीश, राखाल भी हैं । साधु निराकारवादी हैं । श्रीरामकृष्ण उन्हें साकार का भी चिन्तन करने के लिए कह रहे हैं ।
श्रीरामकृष्ण साधु से कह रहे हैं, “डुबकी लगाओ; ऊपर ऊपर तैरने से रत्न नहीं मिलते । ईश्वर निराकार हैं तथा साकार भी; साकार का चिन्तन करने से शीघ्र भक्ति प्राप्त होती है । तब फिर निराकार का चिन्तन किया जा सकता है । - जिस प्रकार चिट्ठी को पढ़कर फेंक देते हैं, और उसके बाद उसमें लिखे अनुसार काम करते हैं ।”
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*परिच्छेद ६७*
*दक्षिणेश्वर में बलराम के पिता आदि के साथ*
(१)
*‘बढ़े चलो ।’ अवतार-तत्व*
शनिवार, २२ दिसम्बर ई., सबेरे नौ बजे का समय होगा । बलराम के पिता आए हैं । राखाल, हरीश, मास्टर, लाटू यहाँ पर निवास कर रहे हैं । श्यामपुकुर के देवेन्द्र घोष आए हैं । श्रीरामकृष्ण दक्षिणपूर्ववाले बरामदे में भक्तों के साथ बैठे हैं ।
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एक भक्त पूछ रहे हैं – भक्ति कैसे हो ?
श्रीरामकृष्ण(बलराम के पिता आदि भक्तों के प्रति) - बढ़े चलो । सात फाटकों के बाद राजा विराजमान हैं । सब फाटक पार हो जाने पर ही तो राजा को देख सकोगे ।
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“मैं चानक में अन्नपूर्णा की स्थापना के समय द्वारकाबाबू से कहा था, बड़े तालाब में गम्भीर जल में बड़ी बड़ी मछलियाँ आ जाएगी । कभी कभी उछल-कूद भी करेंगी । प्रेमभक्ति मानो चारा !
“ईश्वर नरलीला करते हैं । मनुष्य रूप में वे अवतीर्ण होते हैं, जिस प्रकार श्रीकृष्ण, श्रीरामचन्द्र, श्रीचैतन्यदेव । मैंने केशव सेन से कहा था कि मनुष्य में ईश्वर का अधिक प्रकाश है । मैदान में छोटे छोटे गड्ढे रहते हैं; उन गड्ढों के भीतर मछली, केकड़े रहते हैं । मछली, केकड़े खोजना हो तो उन गड्ढों के भीतर खोजना होता है । ईश्वर को खोजना हो तो अवतारों के भीतर खोजना चाहिए ।
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“उस साढ़े तीन हाथ की मानवदेह में जगन्माता अवतीर्ण होती हैं । गीत में कहा है –
(भावार्थ) – “श्यामा माँ ने कैसी कल बनायी है । साढ़े तीन हाथ की कल के भीतर कितने ही तमाशे दिखा रही है । स्वयं कल के भीतर रहकर वह रस्सी पकड़कर उसे घूमाती है । कल कहती है कि मैं अपने आप ही घूम रही हूँ । वह नहीं जानती कि उसे कौन घूमा रहा है ।
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‘परन्तु ईश्वर को जानना हो, अवतार को पहचानना हो तो साधना की आवश्यकता है । तालाब में बड़ी बड़ी मछलियाँ हैं, उनके लिए चारा डालना पड़ता है । दूध में मक्खन है, उसे मन्थन करना पड़ता है । राई में तेल है, उसे पेरना पड़ता है । मेहँदी से हाथ लाल होता है, उसे पीसना पड़ता है ।’
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भक्त(श्रीरामकृष्ण के प्रति) – अच्छा, वे साकार हैं या निराकार ?
श्रीरामकृष्ण – ठहरो, पहले कलकत्ता तो जाओ, तभी तो जानोगे कि कहाँ है किले का मैदान, कहाँ एशियाटिक सोसायटी है और कहाँ बंगाल बैंक है ।
“खड़दा ब्राह्मण-मुहल्ले में जाने के लिए पहले तो खड़दा पहुँचना ही होगा !
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“निराकार साधना होगी क्यों नहीं ? परन्तु बड़ी कठिन है । कामिनी-कांचन का त्याग हुए बिना नहीं होता । बाहर त्याग, फिर भीतर त्याग ! विषयबुद्धि का लवलेश रहते काम नहीं बनेगा ।
“साकार की साधना सरल है – परन्तु उतनी सरल भी नहीं है ।
“निराकार साधना, ज्ञानयोग की साधना की चर्चा भक्तों के पास नहीं करनी चाहिए । बड़ी कठिनाई से उसे थोड़ीसी भक्ति प्राप्त हो रही है; उसके पास यह कहने से कि सब कुछ स्वप्नतुल्य है, उसकी भक्ति की हानि होती है ।
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“कबीरदास निराकारवादी थे । शिव, काली, कृष्ण को नहीं मानते थे । वे कहते थे, काली चावल-केला खाती है, कृष्ण गोपियों के हथेली बजाने पर बन्दर की तरह नाचते थे । (सभी हँस पड़े ।)
“निराकार साधक मानो पहले दशभुजा का दर्शन करते हैं, उसके बाद चतुर्भुज का, उसके बाद द्विभुज गोपाल का और अन्त में अखण्ड ज्योति का दर्शन कर उसी में लीन होते हैं ।
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“कहा जाता है, दत्तात्रेय, जड़भरत ब्रह्मदर्शन के बाद नहीं लौटे ।
“कहते हैं कि शुकदेव ने उस ब्रह्मसमुद्र की एक बूँद मात्र का आस्वादन किया था । समुद्र की तरंगों की उछल-कूद देखी थी, गर्जना सुनी थी, परन्तु समुद्र में डूबे न थे ।
“एक ब्रहमचारी ने कहा था, बद्रीकेदार के उस पार जाने से शरीर नहीं रहता । उसी प्रकार ब्रहमज्ञान के बाद फिर शरीर नहीं रहता । इक्कीस दिनों में मृत्यु हो जाती है ।
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“दीवाल के उस पार अनन्त मैदान है । चार मित्रों ने दीवाल के उस पार क्या है, यह देखने की चेष्टा की । एक-एक व्यक्ति दीवाल पर चढ़ता है; उस मैदान को देखकर ‘हो हो’ करके हँसता हुआ दूसरी ओर कूद जाता है । तीन व्यक्तियों ने कोई खबर न दी । सिर्फ एक ने खबर दी । ब्रह्मज्ञान के बाद भी उसका शरीर रहा, लोकशिक्षा के लिए - जैसे अवतार आदि का ।
(क्रमशः)

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