बुधवार, 13 जनवरी 2021

काल का अंग २५ - ४३/४६

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🦚 *#श्रीदादूवाणी०भावार्थदीपिका* 🦚
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भाष्यकार - ब्रह्मलीन महामंडलेश्वर स्वामी आत्माराम जी महाराज, व्याकरणवेदान्ताचार्य । साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ
*#हस्तलिखित०दादूवाणी* सौजन्य ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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(#श्रीदादूवाणी ~ काल का अंग २५ - ४३/४६)
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*सब जग सूता नींद भर, जागै नाहीं कोइ ।* 
*आगे पीछे देखिये, प्रत्यक्ष परलै होइ ॥४३॥* 
सारा जगत् ही मोह रूपी रात्रि में सो रहा है । कोई भी आत्मज्ञान के लिये नहीं जागता है । अतःएव सभी प्राणी नष्ट हो रहे हैं । 
महाभारत में कहा है कि- जब यह मनुष्य बुढापा व्याधि तथा अनेक कारणों से उत्पन्न दुःखों को त्याग नहीं सकता तो फिर यह स्वस्थ ही तरह कैसे बैठा है ? अर्थात् इस से मुक्त होने के लिये यत्न क्यों नहीं करता । 
*॥ आसक्तिता मोह ॥* 
*ये सज्जन दुर्जन भये, अंत काल की बार ।* 
*दादू इनमें को नहीं, विपति बटावनहार ॥४४॥* 
हे साधक ! जो तुझे स्त्री पुत्रादिक सज्जन की तरह प्रिय लगते हैं, वे मृत्यु काल में दुर्जन हो जायेंगे । इनमें से एक भी तेरा सहायक नहीं होगा । अतः इन का मोह त्याग कर ईश्वर का भजन कर । लिखा है कि- 
मनुष्य जितने भी मन को प्रिय लगने वाले संबन्धों को बढ़ाता है तो वह अपने हृदय में मानों दुःख देने के लिये शोक के खूंटे गाड़ रहा है । अर्थात् वह उतना ही दुःखी होगा । यह जीव मोह से युक्त होकर स्त्री पुत्रादिकों को प्रसन्न करने के लिये कार्य अकार्य का विचार किये बिना ही अकार्य कर्म करके भी उनको प्रसन्न करता है । वह मनुष्य पशुतुल्य है । स्त्री पुत्रादिकों में आसक्त चित्त वाले उस पशु पुरुष को काल इस तरह से लेकर चला जाता है जैसे सोते हुए मृग को भेडिया ले जाकर मार देता है । 
*संगी सज्जन आपणां, साथी सिरजनहार ।* 
*दादू दूजा को नहीं, इहि कलि इहि संसार ॥४५॥* 
इस कलि काल में एक परमात्मा ही संगी है वह ही मित्र है दूसरा कोई नहीं, अतः उसी को संगी मानकर उसका ही भजन करो । भागवत में- 
भगवान् के नाम रूप गुण लीला धाम इनके श्रवण, कीर्तन, ध्यान, पूजन, से प्रसन्न होकर भगवान् हृदय में स्थित हो जाता हैं और अनेक जन्म जन्मान्तरों के पापों को क्षण भर में ही भस्म कर देते हैं । अतः उनको ही भजो । 
*॥ काल चितावणी ॥* 
*ये दिन बीते चल गये, वे दिन आये धाइ ।* 
*राम नाम बिन जीव को, काल गरासै जाइ ॥४६॥* 
बाल्यकाल तथा यौवन के दिन बीत गये और अब मृत्यु के दिन समीप ही आ गये हैं । यह मृत्यु भजन बिना शरीर को खाकर चली जायेगी सो शीघ्र ही भजन में लग जाना चाहिये । लिखा है कि- 
जैसे नदी का स्रोत बहता हुआ चला जाता है वैसे ही गये हुए दिन और रातें भी नहीं लौटती । किन्तु मृत्यु उनको खा जाती है । 
(क्रमशः)

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