गुरुवार, 14 जनवरी 2021

*१२. चितावणी कौ अंग ~ ५/८*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१२. चितावणी कौ अंग ~ ५/८*
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सब मिल सुमिरौ रांम हरि, पिव पिव करौ पुकार ।
कहि जगजीवन नूर मंहि, मगन रहौ तजि मार४ ॥५॥
(४. मार=कामवासना)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सभी जीव राम नाम का स्मरण करें व परमात्मा को ही पुकारें संत कहते हैं कि काम वासना का त्याग कर उनके तेजोमय स्वरूप का ही ध्यान करें ।
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ग्यांन५ गरीबी दीनता, करुणां करै न कोइ ।
कहि जगजीवन रांम रस, किहिं गुन प्रापति होइ५ ॥६॥
{५-५. जब किसी साधक के बाह्य आचरण में ज्ञान, गरीबी(विनय) दीनता एवं करुणा का कोई अल्प भी भाव नहीं है तो उसे रामभजन का कोई भी लाभ(गुण) कैसे मिल सकता है ॥६॥}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव में न तो ज्ञान है न ही दीनता है न करुणा है न ही भजन में आनंद है फिर किस गुण पर द्रवित हो प्रभु मिलेंगे ।
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भाव भगति हा हा करै, दीन लीन निज ठांम ।
कहि जगजीवन रांम रस, इहिं गुन पावै रांम ॥७॥
संतजगजीवन कहते हैं कि जो जन हर सांस मे भाव से भक्ति करते है वे अपने स्थान पर बैठ कर ही प्रभु को पा लेते है ।
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रांम६ जांणि बोलै नहीं, जे बोलै तो रांम ।
कहि जगजीवन समझि जन, सहजि मिलै सब ठांम६ ॥८॥
(६-६. भागवत्साक्षात्कार होने पर लोक में 'मैं ज्ञानी हूँ'--ऐसा प्रचार नहीं करना चाहिये । यदि कभी कुछ बोलना ही पड़े तो भागवद्गुण कीर्तन ही करना चाहिये ॥८॥)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु भक्ति व परिणाम का अहंकार नहीं करना चाहिये । यदि कभी बोलना पड़े तो भगवन्नाम संकीर्तन ही बोले ।
(क्रमशः)

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