सोमवार, 11 जनवरी 2021

*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ८९/९२*

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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*११. भगति संजीवनी कौ अंग ~ ८९/९२*
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रांम भगति तहां रांमजी, रांम दया प्रकास ।
रांम अमर फल अमीरस, सु कहि जगजीवनदास ॥८९॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जहाँ प्रभु की भक्ति है वहीं प्रभु हैं वहां ही प्रभु की दया है । संत कहते हैं कि प्रभु ही ऐसा अमृत फल है जो अमृत आनंदरस से युक्त है ।
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ऊध वोध अघ२ आंन क्रित, मर मतै प्रकास२ ।
प्रेम भगति लहै रांम घर, सु कहि जगजीवनदास ॥९०॥
(२-२. ऊध वोध=ऊँचे नीचे पाप)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव छोटे बड़े पाप न करे और ध्यान रखे कि वह मृत्यु को प्राप्त होगा अतः प्रेम भक्ति प्राप्त कर प्रभु की शरण में आनंद पूर्वक रहै ।
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प्रगटै नाइक विस्व का३, पुरवै मन की आस ।
प्रेम भगति रस रांम लहै, सु कहि जगजीवनदास ॥९१॥
{३. नाइक विश्व का=संसार का नायक(=नेता)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जब जगत नियंता प्रकट होते हैं तो वहां सब की मनोच्छा पूरी करते हैं । प्रेम भक्ति व राम रुपी रस में आनंद आने लगता है ।
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प्रथम कसौटी४ नांम ले, विरह जगावै जोति ।
कहि जगजीवन रांम वास हरि, मिट जाइ मन की छोति५ ॥९२॥ 
{४. कसौटी=संयम(=आत्मनिग्रह)} {५. छोति=छूत(अस्पृश्यता, अशुद्धि)} 
संतजगजीवन जी कहते हैं कि प्रभु स्मरण में सयंम से प्रभु का नाम ले, विरह से निरंतरता बनी रहे । इस प्रकार प्रभु के हृदय में विराजमान रहने से संसार की सभी अशुद्धि दूर होती है ।
(क्रमशः)

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