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स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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(“सप्तमोल्लास” २५/२७)
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*स्वामी संसय दूरि करीजै*
*अपनौं जांनि रु उत्तर दीजै ।*
*सीतल वचन मिश्ठ कहि बोले,*
*करुणं हि पूर्वक बंधन खोले ॥२५॥*
हे स्वामिन्, मेरे को अपना सेवक समझ कर इसका उत्तर देकर मेरा संशय दूर करें । आपने ही दयाकर के शीतल और मधुर वचन कहकर हमारा बंधन खोला है । अत: यह संशय भी आप अवश्य दूर करने की कृपा करें ॥२५॥
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*और काहू सौं नाही भाख्यो,*
*पूछ्यों किनहुं न हमहूं दाख्यो ।*
*संत जांनि इह तो सौं बरणी,*
*सुनो नृप कहूं पूर्व करणीं ॥२६॥*
तब स्वामी दादूजी ने कहा अब तक यह बात अन्य को नहीं कही है । कारण किसी ने यह पूछा भी नहीं था । तुम्हारा संत स्वभाव जानकर हे राजन तुम्हारे पूर्व कार्य का वर्णन अब यहां करता हूं तुम सुनो ॥२६॥
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*दादूजी ने राजा को पूरब अनन्त रूप दिखाये*
*देखो राव जु दृष्टि उधारी,*
*ये सब ही है रूप हमारे ।*
*देखी नृप मनि अचरज होई,*
*अनन्त रूप का पार न कोई ॥२७॥*
हे राजन ! अब तुम अपनी अन्त: दृष्टि खोलकर देखो ये सामने जो स्वरूप दिखाई दे रहे है ये सब हमारे ही है । फिर योगी श्रेष्ठ दादूजी की प्रदान करी हुई है दिव्य अन्त: दृष्टि से देखा तो इतने स्वरूप दिखाई दिये कि उनका पार भी नहीं मिल रहा था वे अपार थे । यह देख राजा के मन में बहुत अचरज हुआ ।
(क्रमशः)

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