रविवार, 3 जनवरी 2021

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*#श्रीदादू०अनुभव०वाणी, द्वितीय भाग : शब्द*
*राग धनाश्री २७(गायन समय दिन ३ से ६)*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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४३७ - दीपचन्दी
राम तहां प्रगट रहे भरपूर ।
आत्मा कमल जहां,
परम पुरुष तहां,
झिलमिल झिलमिल नूर ॥टेक॥
चन्द सूर मध्य भाइ,
तहां बसै राम राइ,
गँग जमुन के तीर ।
त्रिवेणी संगम जहां,
निर्मल विमल तहां,
निरख - निरख निज नीर ॥१॥
आत्मा उलट जहां,
तेज पुँज रहे तहां,
सहज समाइ ।
अगम निगम अति,
जहां बसे प्राणपति,
परसि परसि निज आइ ॥२॥
कोमल कुसुम दल,
निराकार ज्योति जल,
वार न पार ।
शून्य सरोवर जहां,
दादू हँसा रहे तहां,
विलसि - विलसि निज सार ॥३॥
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यों तो राम सर्वत्र परिपूर्ण हैं किन्तु जहां जीवात्मा का अष्टदल - कमल है वहां ध्यानावस्था में प्रकट रूप से भी भासते हैं । वहां उन परम पुरुष का स्वरूप प्रकाश झिलमिल रूप से भासता है ।
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हे भाई ! इड़ा रूप चन्द्र और पिंगला रूप सूर्य के मध्य की सुषुम्ना चलती है तब वहां अष्टदल कमल पर बसे हुये राजा राम भासते हैं तथा इड़ा - गँगा, पिंगला - यमुना, सुषुम्ना सरस्वती है जहां आज्ञाचक्र में इन तीनों का संगम होता है । उस संगम रूप त्रिवेणी के विमल तट पर निज स्वरूप - निर्मल नीर को बारँबार देख ।
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जहां प्रकाश राशि आत्म स्वरूप ब्रह्म विशेष रूप से स्थित हैं, वृत्ति को अन्तर्मुख करके वहां ही उनके सहज स्वरूप में वृत्ति लय कर । जो वेद से भी अति अगम है, उस अपनी महिमा में ही प्राणपति ब्रह्म बसते हैं, उनका वृत्ति द्वारा बारँबार चिन्तन रूप स्पर्श करके ही निज स्वरूप में आया जाता है ।
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कोमल अष्टदल - कमल पुष्प के दल पर दल प्रतिविम्बित ज्योति के समान वार पार सर्वत्र निराकार ब्रह्म का साक्षात्कार होता है । जहां ब्रह्म रूप शून्य सरोवर का साक्षात्कार होता है, वहां ही विश्व के सार निज स्वरूप ब्रह्म के साक्षात्कार जन्य आनन्द का उपभोग करते हुये हम हँस रहते हैं ।
(क्रमशः)

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