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*सीप सुधा रस ले रहै, पीवै न खारा नीर ।*
*मांहैं मोती नीपजै, दादू बंद शरीर ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ मन का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*प्रियव्रत*
*प्रियव्रत प्रकट पसारो तज्यो प्रथम ही,*
*विरक्त वैरागी भयो मोक्ष पद कारणै ।*
*ताकों विधि विविध सुनायो मत-मातंग ज्यों,*
*लेहु सुत राज पर काज तोहि सारणै ॥*
*मन बिन जीते न मिटत मनसा के भोग,*
*ह्वै है आगे रोग सोई क्यों न अब टारणै ।*
*एकादश अर्बुद कियो है रात दिन राज,*
*राम ने विसार्यो छिन राघो ताके वारणै ॥५८॥*
प्रियव्रतजी ने पहले ही संसार के पसारे को त्याग दिया था । वे मोक्षपद की प्राप्ति के लिये भोगों से विमुख होकर विरक्त बन गये थे ।
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फिर इनके पिता स्वायंभुवमनु की प्रेरणा से ब्रह्माजी ने इनको विविध प्रकार से अपना ज्ञान रूप मत जो श्रोता को मतवाले हाथी के समान मस्त बनाता है सुनाया और कहा-पुत्र तुमको परोपकार के लिये ही राज्य ग्रहण करना चाहिये ।
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मन को जीते बिना बाहर के भोग त्याग देने पर भी मनोरथ रूप भोग नहीं मिटते और आगे वे रोग रूप हो जाते हैं । अतः उन भोगों को मर्यादा से भोग कर मनोरथों को पहले ही क्यों न हटा दिया जाय ।
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नारदजी की आज्ञा से ब्रह्माजी का वचन मानकर प्रियव्रतजी ने एकादश अर्बुद वर्ष राज्य किया किन्तु रामताराम का चिन्तन एक क्षण भी नहीं छोड़ा । मैं उनकी बलिहारी जाता हूँ । इनकी कथा मूल छप्पय ५३ की टीका में भी है ।
(क्रमशः)

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