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*दादू साधन सब किया, जब उनमन लागा मन ।*
*दादू सुस्थिर आत्मा, यों जुग जुग जीवैं जन ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ सजीवन का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*जनक जी*
*करम हरण कवि वर्तमान भूत भक्ष्य,*
*आये नव योगेश्वर जीवन जनक के ।*
*नाहरो के दूध सम निवृत्ति धरम धार,*
*छीजे न लगार राखि पातर कनक के ॥*
*राज तज मोह तज शुद्ध हरि नाम भज,*
*कंचन हो छुये लोह पारस तनक के ।*
*राघो रह्यो थकित थिराऊ ध्वनि ध्यान लगि,*
*कीट गही मीट मार्यो भृंगी की भुनक के ॥६३॥*
ज्ञान द्वारा संचित कर्मों को हरने वाले, भूत, वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता कवि, जीवों के जीवन रूप नव योगेश्वर जनकजी के आये थे ।
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जनकजी ने सिंहनी के दूध के समान निवृत्ति धर्म को धारण किया था । जैसे सिंहनी का दूध स्वर्ण के पात्र में किंचित भी कम नहीं होता(दूसरे पात्रों से झर जाता है) वैसे ही राजा जनक ने अपने निवृति धर्म को कम नहीं होने दिया ।
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वे राज्य की आसक्ति और परिवार आदि का मोह तजकर शुद्ध हरि नाम का ही भजन करते थे । जैसे लोहा पारस को किंचित छूने पर भी सोना बन जाता है वैसे ही राजा सत्संग से अति श्रेष्ठ बन गये थे ।
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वे संसार प्रपंच से थककर नाभि प्रदेश की स्थिर ध्वनि के ध्यान में ऐसे लगे थे जैसे भृंगी के दंश मारने से तथा उसकी भुनक रूप ध्वनि के सुनने से कीट की आंखें बंद हो जाती हैं । वैसे ही इनकी वृत्ति भी अन्तर होकर सहज समाधि में लग जाती थी ।
(क्रमशः)

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