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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१२. चितावणी कौ अंग ~ ७३/७६*
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पढ़ि गुण पंडित होइ करि, जे पलट्या नहीं शरीर ।
तो जगजीवन पुस्तक सकल, बादि५ लिख्या ए बीर६ ॥७३॥
(बादि=व्यर्थ) {६. बीर=भाई(स्नेहात्मक सम्बोधन)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि पढ पढकर ज्ञान लेना व्यर्थ है जो हमारा मानसिक परिवर्तन न हो तो तब सारे ग्रंथ व्यर्थ हैं यदि हमने अपने आपको सन्मार्ग पर नहीं चलाया ।
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जगजीवन घर पढ़ाया, पूत पिता नै आइ ।
क्षर मंहि अक्षर पिछांण्या, देखन लाग्या नांहि ॥७४॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि देह में आत्मज्ञान ने देह धारी को समझाया की सब क्षण भंगुर है फिर भी वह सत्य को न जानकर अन्य बातो में लगा रहा ।
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विद्या पढ़ि संजीवनी, पुनि सत संगति की नांहि ।
जगजीवन गुरु बिन, पड्या सिंह मुख मांहि ॥७५॥
संतजगजीवन जी कहते हैं कि भले ही मृतक को औषधि या विद्या से जीवन दान देने की क्षमता जीव अर्जित करले पर बिना गुरु कृपा के वह काल रुपी सिंह के मुख का ग्रास ही होगा । वह मृत्यु भय से ग्रसित रहेगा, जिससे गुरु महाराज ही छुड़ा सकते हैं ।
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जगजीवन विद्या पढ़ी, काल बंचनी७ नांम ।
निस बासुर डरपत रहै, रांम रांम कहै रांम ॥७६॥
{७. काल बंचनी=मृत्युनाशक(संजीवनी)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि जीव ने ज्ञान अर्जित किया और जीव बचाने की विद्या सीख ली फिर भी वह मृत्यु भय से ग्रसित हो सदा राम राम करता रहा अगर वह बिना विद्या के भी श्रद्धा से राम नाम का स्मरण करता तो वह निर्भय हो जाता ।
(क्रमशः)

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