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*दादू माया कारण मूंड मुंडाया, यहु तौ योग न होई ।*
*पारब्रह्म सूं परिचय नांहीं, कपट न सीझै कोई ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*आचार उथेल का अंग १३७*
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पय प्राणी पशु तें लिया, घृत कूपै सु अहार ।
तातै छागल जल पिया, रज्जब करि सु विचार ॥१७॥
प्राणी दूध पशु से लेते ही हैं, ऊंट के चमड़े से बने हुये कूपे में भरा हुआ धृत खाते है, बकरे की चर्म से बनी मसक का जल पान किया ही जाता है, इससे भली प्रकार विचार करना चाहिये, आचार के आग्रह में ही पड़ा रहना उचित नहीं है ।
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रज्जब ऊंधा थाल न कूटिये, सूधाकर संत पोष ।
टीडी नहीं उडावणी, कपट न लहिये मोष ॥१८॥
ऊंधा थाल बजाकर टीडी मत उड़ाओ, सूधा करके संत को भोजन कराओ कपट से कभी भी मोक्ष नहीं मिलती, आचार का आग्रह छोड़कर प्रभु का भजन करो ।
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ताल१ पखावज२ झालर शंख,
ढोल दमामा३ भेरि४ असंख५ ।
बाहर शोर सरै क्या काम,
माँहि मौनी कहै न राम ॥१९॥
करताल१, मृदंग२, झालर, शंख, ढोल, नगारा३, नौबत४ आदि असंख्य५ बाजे बजा कर बाहर कोलाहल करने से क्या कार्य सिद्ध होता है ? मौनी होकर भीतर राम राम क्यों नहीं करता ?
इति श्री रज्जब गिरार्थ प्रकाशिका सहित आचार उथेल का अंग १३७ समाप्तः ॥सा. ४३७२॥
(क्रमशः)

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