गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

*भरत*

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🙏🇮🇳 *卐सत्यराम सा卐* 🇮🇳🙏
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*अनबांछा आगे पड़ै, पीछे लेइ उठाइ ।*
*दादू के सिर दोष यहु, जे कुछ राम रजाइ ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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*सौजन्य ~ #भक्तमाल*, *रचनाकार ~ स्वामी राघवदास जी,*
*टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान*
*साभार ~ श्री दादू दयालु महासभा*, *साभार विद्युत संस्करण ~ रमा लाठ*
*मार्गदर्शक ~ @Mahamandleshwar Purushotam Swami*
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*भरत*
*मनहर-*
*चले हैं अयोध्या छाड़ि रामजी पिता के काज,*
*भरत न कीन्हों राज राखी शिर पावरी ।*
*धृक यह राज तज्यो नाज रघुनाथ काज,*
*काहे को विछोहे भ्रात मात मेरो बावरी ॥*
*आसन अवनि खनि नीचे शैन कीन्हों जिन,*
*रोवत वियोग मन रहै तन तावरी ।*
*राघो कहै भरत अरथ गृह भूल गयो,*
*मेरो कछू नांही वश राजा राम रावरी ॥८३॥*
दशरथ नन्दन रामचन्द्र जी पिता के सत्य पालन रूप कार्य को पूर्ण करने के लिये अयोध्या छोड़कर वन को चले गये तब भरत जी ने राज्य नहीं किया किन्तु अपने शिर पर रामजी की खड़ाऊ रक्खी थी ।
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अर्थात् रामजी की चरण पादुकाओं से आज्ञा लेकर ही सब काम करते थे और कहते थे- रामजी के वन जाने पर यह राज्य धिक्कार के योग्य ही है । उन्होंने रघुनाथ रामजी के दर्शन के लिये अन्न को छोड़ दिया था ।
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फलाहार करते हुए मुनियों के समान रहते थे और कहते थे-यह भ्राताओं का विछोह किस कारण किया गया है? बिना ही कारण किया है । इससे ज्ञात होता है कि मेरी माता पगली है । वे पृथ्वी पर ही आसन रखते थे और पृथ्वी को खोदकर नीचे शयन करते थे । प्रायः रामजी के वियोग दुःख से रोते रहते थे । उनका मन तथा शरीर संतप्त रहता था ।
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भरत जी धन धामादि को भूल गये थे । अर्थात् धनादि का अभिमान उन्हें नहीं था । राज्य सम्बन्धी तथा अन्य प्रसंग पड़ने पर कहते थे- मेरा कुछ भी वश नहीं चलता है ये सब तो राजा रामजी की आज्ञा से ही हो रहा है ।
(क्रमशः)

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