गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

*१३. मन कौ अंग ~ १७/१६*

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*#पं०श्रीजगजीवनदासजीकीअनभैवाणी*
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*श्रद्धेय श्री महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी बाबाजी के आशीर्वाद से*
*वाणी-अर्थ सौजन्य ~ Premsakhi Goswami*
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*१३. मन कौ अंग ~ १७/१६*
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कहा बिचारौं कहा करौं, क्यूं रस राखौं रांम ।
जगजीवन सगला५ बुरा, मन कपटी का काम५ ॥१७॥
(५-५. सगला बुरा=कपटी मन के सभी कर्म हानिकारक हैं)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन बिचारा क्या करे वह स्मरण से जब आनंदित नहीं होता उसके आनंद संसार में है मन के सभी कर्म बुरे हैं और ऐसे करम मन द्वारा ही शरीर करता है ।
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समझायां समझै नहीं, इन की औरै६ बात ।
पंचन कूं परमोधतां७, जगजीवन जुग जात ॥१८॥
(६. औरै=अन्य) (७. परमोधतां=समझाते हुए)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन समझाने से भी नहीं समझता यह अन्य बात ही करता है । पांचों इन्द्रियों को समझाते या वश में करते हुये तो युग बीत गये ।
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सांचे असथल८ सुनि के, मन जो रहै समाइ ।
तौ जगजीवन परम रस, बिलसै भरम गमाइ ॥१९॥
(८. असथल=स्थल=स्थान)
संतजगजीवन जी कहते हैं कि सत्य स्थल तो शून्य है जहां मन को समाना है । तो सभी संशय दूर हो प्रभु दर्शन के आनंदरस का अनुभव होता है ।
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पकड़ि लिया मन पाहरू९, नौ दरवाजा रोकि ।
सबद सुणांया अगम का, जगजीवन घर कोकि१० ॥२०॥
(९. पाहरू=पहरेदार) {१०. कोकि=कूक(तीव्र ध्वनि)}
संतजगजीवन जी कहते हैं कि मन पहरेदार है जो शरीर के नो इन्द्रियों के द्वार रोक कर रख सकता है । और परमात्मा का बोध उच्च स्वर यानि प्रबलता से सुना सकता है ।
(क्रमशः)

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