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*कागद काले कर मुए, केते वेद पुराण ।*
*एकै अक्षर पीव का, दादू पढै सुजान ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*वेद विकार का अंग १३८*
इस अंग में वेदादि के वचन भेद विकार का विचार कर रहे हैं ~
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रज्जब चहु दिशि चूक है, छहों ठौर छल छेद ।
नौ नाराज लीयें खड़े, अष्टादश अरि भेद ॥१॥
चारों वेदों में कहीं कुछ कहना और कहीं कुछ कहना भूल है । षट् दर्शनों के सिद्धान्तों में भी एक दूसरे को खंडन करना रूप छल है । नौ व्याकरण एक दूसरे के मतभेद रूप नाराजी लिये हुये स्थित है । अठारह पुराण भी एक दूसरे को न्यून बताकर शत्रु भेद खड़ा करते हैं ।
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रज्जब चित्त१ चौबीस दिशि, वेद बोध की साखि ।
वस्तु एक मत माग२ बहु, कहा करै सो राखि ॥२॥
वेद ज्ञान की साक्षी लेकर मानवों का चित्त१ चौबीस अवतारों की और जाता है किन्तु ब्रह्म रूप वस्तु तो एक ही है । चौबीस अवतार रूप विभूति उपासना के कारण सिद्धान्त रूप मार्ग बहुत हो गये हैं सो उन सिद्धान्त रूप मार्ग२ को हृदय में रखकर क्या करना है ? एक ब्रह्म चिन्तन ही उचित है ।
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एक नवहिं ऊगूण१ दिशि, एक नवहिं आथूंण२ ।
रज्जब बातें वेद की, सुन भूले मुर३ भौण४ ॥३॥
एक सूर्य-उदय१ होने की दिशा की और प्रणाम करते हैं और एक सूर्य-अस्त२ होने की ओर नमस्कार करते हैं । इस प्रकार वेदादि की बात सुनकर तीनों३ भुवनों४ के लोग भूल कर भ्रम में पड़ रहे हैं, प्रभु तो सर्व ओर ही है चाहे किसी ओर भी प्रणाम करो ।
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वेद बतावै अड़सठ्यौं, पूजो जल पाषाण ।
रज्जब रंजहि न संतजन, जिन हुं निरंजन जाण ॥४॥
वेदादि अड़सठ तीर्थो को बताते हुये जल तथा पत्थर पूजने की प्रेरणा करते हैं किंतु जिन संतों ने निरंजन ब्रह्म का स्वरूप जान लिया है । वे जल पाषाण पूजा से संतुष्ट नहीं होते ।
(क्रमशः)

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