मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

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*काल झाल में जग जलै, भाज न निकसै कोइ ।*
*दादू शरणैं साच के, अभय अमर पद होइ ॥*
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साभार ~ ### स्वामी श्री नारायणदासजी महाराज, पुष्कर, अजमेर ###
साभार विद्युत् संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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श्री दृष्टान्त सुधा - सिन्धु ---साधना
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एक समय स्वामी विवेकानन्दजी को यह सोचकर कि - अभी तक ईश्वर - दर्शन नहीं हुआ, बड़ा दु:ख हुआ । उन्होंने अपने को धिक्कारते हुये एक वन में प्रवेश किया । सूर्य अस्त हो चुके थे । स्वामी जी भूख से व्याकुल थे । वहां उन्हें एक सिंह दीख पड़ा । उसे देख कर स्वामीजी ने सोचा - भगवान ने इस समय ठीक समय पर ही भेजा है, यह भी भूखा है और में भी भूखा हूँ, पर मैं अपने शरीर को इससे क्यों बचाऊँ ? तब मैं इस शरीर से ईश्वर का दर्शन नहीं कर सका, तब इसे रखने की क्या आवश्यकता है ? ऐसा विचार करके अपने शरीर को सिंह के अर्पण करने का निश्चय कर लिया और सिंह के सामने जाकर खड़े हो गये । किन्तु उसके दर्शन से सिंह की हिंसात्मक वृत्ति बदल गई और वह दूसरे रास्ते से चला गया । इससे ज्ञात होता है कि सच्चे साधक पर हिंसक सिंह आदि भी घात नहीं करते ।
सच्चे साधक पर नहीं, हिंसक करते धात ।
संत विवेकानन्द को, देख सिंह हट जात ॥२१३॥

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