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*समर्थ धोरी कंध धर, रथ ले ओर निवाहि ।*
*मार्ग मांहि न मेलिये, पीछे बिड़द लजाहि ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ बिनती का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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परिच्छेद ७५
*ईश्वर-दर्शन के लिए व्याकुलता*
(१)
दक्षिणेश्वर में राखाल, लाटू, मास्टर, महिमा आदि के साथ
श्रीरामकृष्ण दक्षिणेश्वर-मन्दिर में अपने उसी कमरे में हैं । दिन के तीन बजे होंगे । आज शनिवार है, ता. २ फरवरी १८८४ ।
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एक दिन श्रीरामकृष्ण भावावेश में झाऊतल्ले की ओर जा रहे थे । साथ में किसी के न रहने के कारण रेलिंग के पास गिर गये । इससे उनके बायें हाथ की हड्डी हट गयी और गहरी चोट आ गयी । मास्टर कलकत्ते से चोट में बाँधने का सामान लेने गये हैं ।
श्रीयुत राखाल, महिमाचरण, हाजरा आदि भक्त कमरे में बैठे हैं । मास्टर ने आकर भूमिष्ठ हो श्रीरामकृष्ण को प्रणाम किया ।
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श्रीरामकृष्ण – क्यों जी, तुम्हें कौनसी बीमारी हुई थी? अब तो अच्छे हो न?
मास्टर – जी हाँ ।
श्रीरामकृष्ण –(महिमाचरण से) – क्यों जी, यहाँ का भाव है, ‘तुम यन्त्री हो – मैं यन्त्र हूँ ।’ फिर भी इस तरह क्यों हुआ?
श्रीरामकृष्ण खाट पर बैठे हैं । महिमाचरण अपने तीर्थ-दर्शन की बातें कह रहे हैं । श्रीरामकृष्ण सुन रहे हैं । बारह वर्ष पहले का तीर्थ-दर्शन ।
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महिमाचरण – काशी, सिकरौल में एक बगीचे में मैंने एक ब्रह्मचारी देखा । उसने कहा, इस बगीचे में मैं बीस साल से हूँ । परन्तु किसका बगीचा है, वह नहीं जानता था । मुझसे पूछा, क्यों बाबू, नौकरी करते हो ? मैंने कहा – नहीं । तब उसने कहा, तो क्या परिव्राजक हो ?
“नर्मदा-तट पर एक साधु देखा था । अन्तर में गायत्री का जप कर रहे थे, शरीर पुलकायमान हो रहा था ! और वे इस तरह प्रणव और गायत्री का उच्चारण कर रहे थे कि सुननेवालों को भी रोमांच हो रहा था ।”
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श्रीरामकृष्ण का बालकों का सा स्वभाव है – भूख लगी है; मास्टर से कह रहे हैं, “क्यों कुछ लाये हो ?” राखाल को देखकर श्रीरामकृष्ण समाधिमग्न हो गये ।
समाधि छुट रही है । प्रकृतिस्थ होने के लिए श्रीरामकृष्ण कह रहे हैं – ‘मैं जलेबी खाऊँगा’ , मैं जल पिऊँगा ।’
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बालस्वभाव श्रीरामकृष्ण जगन्माता से रोकर कह रहे हैं – ‘ब्रह्ममयी ! मुझे ऐसा क्यों कर दिया ? मेरे हाथ में बड़ा दर्द हो रहा है !’ (राखाल, महिमाचरण, हाजरा आदि के प्रति) – ‘मेरा दर्द अच्छा हो जायगा ?’ भक्तगण, छोटे लड़के को जिस तरह लोग समझाते हैं, उसी तरह कहने लगे – ‘अच्छा क्यों न होगा ?’
श्रीरामकृष्ण – (राखाल से) – यद्यपि तू शरीर-रक्षा के लिए है, तथापि तेरा दोष नहीं, क्योंकि तू रहने पर भी रेलिंग तक तो जाता नहीं ।
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श्रीरामकृष्ण फिर भावाविष्ट हो गये । भावावेश में ही कह रहे हैं – ‘ॐ, ॐ, ॐ, - माँ, मैं क्या कह रहा हूँ ! माँ, मुझे ब्रह्मज्ञान देकर बेहोश न करना । मैं तेरा बच्चा जो हूँ ! डरता हूँ – मुझे माँ चाहिए । ब्रह्मज्ञान को मेरा कोटि कोटि नमस्कार ! वह जिसे देना हो उसे दो । आनन्दमयी ! – आनन्दमयी !’
श्रीरामकृष्ण उच्च स्वर से आनन्दमयी, आनन्दमयी कहकर रो रहे हैं और कह रहे हैं – ‘इसलिए तो मुझे दुःख है कि तुम जैसी माँ के रहते, मेरे जागते, घर में चोरी हो जाय ।’
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श्रीरामकृष्ण फिर माँ से कह रहे हैं – ‘माँ, मैंने क्या अन्याय किया है? – क्या मैं कुछ करता हूँ, माँ ! तू ही तो सब कुछ करती है । मैं यन्त्र हूँ, तू यन्त्री । (राखाल के प्रति हँसते हुए) देखना, तू कहीं गिर न जाना, अभिमानवश स्वयं को कहीं ठगना नहीं ।’
श्रीरामकृष्ण माँ से फिर कह रहे हैं – “माँ, चोट लग जाने से मैं रोता हूँ ? – नहीं मैं तो इसलिए रोता हूँ कि ‘तुम जैसी माँ के रहते, मेरे जागते, घर में चोरी हो ।’
(क्रमशः)
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