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*दादू दुनियां सौं दिल बांध करि, बैठे दीन गँवाइ ।*
*नेकी नाम बिसार करि, करद कमाया खाइ ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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सौ गासौं१ संशय नहीं, बाट चलै वपु मांहि ।
एक हि कण उबटे२ चलै, जन रज्जब जक३ नांहिं ॥२५॥
यदि मुख के मार्ग से जाय तो सौ ग्रास१ जाने पर भी व्याधा का संशय खड़ा नहीं होता किंतु कुमार्ग२ से अर्थात आँख से एक कण भी जाय तो शांति३ नहीं मिलती, भारी कष्ट होता है । वैसे ही अनीति के मार्ग में चलने से कष्ट होता है ।
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घीड़ी१ पाटा घाव परि, गुल२ गद३ शोधि४ पहार ।
जन रज्जब वैद्यक यहु, करे न सर्व संहार ॥२६॥
घाव पर घी१ का पाटा चढा कर घाव ठीक करे, विचार४ करके पहाड़ से रोग नाशक फूल२ लाकर रोग३ को दूर करे तो यही वैद्यक की नीति है किसी का सर्व नाश न करे ।
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दिव१ न दुखावै दोष बिन, न्याय नीति निरताय२ ।
तो आदम३ अपराध बिन, कहु क्यों मारा जाय ॥२७॥
न्याय नीति का विचार२ करके देखो, सत्यासत्य का निर्णय करने वाला तप्त लोहा का गोला१ भी दोष बिना जलना रूप दु:ख नहीं देता, तब कहो, मनुष्य३ से बिना दोष प्राणी क्यों मारा जाता है ? नीति के त्याग से ही मारा जाता है ।
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धरम स्थानिक१ बंदिये२, कर्म स्थानिक३ दंड ।
जन रज्जब यहु जग जुगति, नीति मार्ग नौखंड ॥२८॥
धर्म रूप स्थान-वाला१ है अर्थात धर्म में स्थित रहता है, उसे नमस्कार२ करना चाहिये, और कुकर्म रूप स्थान-वाला३ है अर्थात कुकर्म करता है उसे दंड देना चाहिये । यही जगत में रहने की युक्ति है, नीति वाले के लिये नौओं खंडो के मार्ग खुले हैं ।
(क्रमशः)
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