रविवार, 14 फ़रवरी 2021

*श्रीरामकृष्ण का सिद्धान्त*

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*धनि धनि साहिब तू बड़ा, कौन अनुपम रीत ।*
*सकल लोक सिर सांइयां, ह्वै कर रह्या अतीत ॥*
*(#श्रीदादूवाणी ~ विश्वास का अंग)*
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साभार ~ श्री महेन्द्रनाथ गुप्त(बंगाली), कवि श्री पं. सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’(हिंदी अनुवाद)
साभार विद्युत् संस्करण ~ रमा लाठ
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*क्या स्वाधीन इच्छा(Free Will) है ? श्रीरामकृष्ण का सिद्धान्त*
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“सब कुछ वे ही कर रहे हैं । अगर यह कहो कि सब कुछ उनके मत्थे मढ़कर फिर तो मनुष्य खूब पाप कर सकता है, तो यह ठीक न होगा; क्योंकि जिसने यह समझा है कि ईश्वर ही कर्ता है और जीव अकर्ता, उसका पैर कभी बेताल नहीं पड़ सकता ।
“इंग्लिशमैन जिसे स्वाधीन इच्छा(Free Will) कहते हैं, वह उन्होंने दे रखी है ।
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‘जिन लोगों ने उन्हें नहीं पाया, उनमें अगर इस स्वाधीन इच्छा का बोध न होता तो उनसे पाप की वृद्धि हो सकती थी । अपने दोषों से मैं पाप कर रहा हूँ – यह ज्ञान अगर उन्होंने न दिया होता तो पाप की और भी वृद्धि होती ।
“जिन्होंने उन्हें पा लिया है, वे जानते हैं स्वाधीन इच्छा नाममात्र की है । वास्तव में वे ही यन्त्री हैं, मैं केवल यन्त्र हूँ; वे इंजिनियर है, मैं गाड़ी !”
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(२)
दिन का पिछला पहर हैं । चार बजे का समय होगा । पंचवटीवाले कमरे में श्रीयुत राखाल तथा और भी दो-एक भक्त मणि का कीर्तन सुन रहे हैं ।
गाना सुनकर राखाल को भावावेश हो गया है ।
कुछ देर बाद श्रीरामकृष्ण पंचवटी में आये । उनके साथ बाबूराम और हरीश हैं ।
राखाल – इन्होंने कीर्तन सुनाकर हम लोगों को खूब प्रसन्न किया ।
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श्रीरामकृष्ण भावावेश में गा रहे हैं – ‘ऐ सखि, कृष्ण का नाम सुनकर मेरे जी में जी आ गया ।’ श्रीरामकृष्ण ने कहा, यही सब गाना चाहिए – ‘सब सखि मिलि बैठल ।’ फिर कहा – बात यही है कि भक्ति और भक्तों को लेकर रहना चाहिए ।
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‘श्रीकृष्ण के मथुरा जाने पर यशोदा राधिका के पास गयी थीं । राधिका उस समय ध्यान में थीं । फिर उन्होंने यशोदा से कहा, मैं आदिशक्ति हूँ । तुम मुझसे वरयाचना करो । यशोदा ने कहा – वर और क्या दोगी, - यही कहो जिससे मन, वचन और कर्मों से उनकी सेवा कर सकूं – इन्हीं आँखों से उनके भक्तों के दर्शन हों – इस मन से उनका ध्यान और उनका चिन्तन हो और वाणी से उनके नाम और गुणों का कीर्तन हो ।
“परन्तु जिनकी भक्ति दृढ़ हो गयी है, उनके लिए भक्तों का संग न होनेपर भी कुछ हर्ज नहीं है । कभी कभी तो भक्तों से विरक्ति भी हो जाती है । बहुत चिकनी दीवाल पर से चूनाकारी धस जाती है । अर्थात् वे जिनके अन्तर-बाहर सर्वत्र है, उन्हीं की यह अवस्था है ।”
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श्रीरामकृष्ण झाऊतल्ले से लौटकर पंचवटी के नीचे मणि से फिर कह रहे है – “तुम्हारी आवाज स्त्रियों जैसी है । तुम इस तरह के गानों का अभ्यास कर सकते हो ? –(भावार्थ) सखि, वह बन कितनी दूर है जहाँ मेरे श्यामसुन्दर हैं ?
(बाबूराम की ओर देखकर मणि से) “देखो, जो अपने आदमी हैं, वे पराये हो जाते हैं, - रामलाल तथा और सब लोग अब जैसे कोई दूसरे हों । फिर जो लोग दूसरे हैं, वे अपने हो जाते हैं । देखो न, बाबूराम से कहता हूँ, जंगल जा, हाथ-मुँह धो । अब तो भक्त ही अपने आत्मीय हैं ।”
मणि – जी हाँ ।
(क्रमशः)

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