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*दादू सबही व्याधि की, औषधि एक विचार ।*
*समझे तैं सुख पाइये, कोइ कुछ कहो गँवार ॥*
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*श्री रज्जबवाणी*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
साभार विद्युत संस्करण ~ महन्त रामगोपालदास तपस्वी तपस्वी
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*नितिज्ञ का अंग १३९*
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शत्रु हुं शोधिर१ मार ही, करहि मित्र प्रतिपाल ।
जन रज्जब यहु नीति मध्य, सत पुरोषों की चाल२ ॥१३॥
शत्रु की खोज१ करके मारते हैं और मित्र की पालना करते हैं, नीति में स्थित नीतिज्ञ सत्पुरुषों का यही व्यवहार२ है ।
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दुष्टों सेती१ दुष्टता, मिलतों सेती मेल ।
रज्जब दोन्यों काम का, खबरदार२ का खेल३ ॥१४॥
दुष्टों के साथ१ दुष्टता और मिलने वाले के साथ मित्रता करना यह दोनों प्रकार का व्यवहार३ ही काम का है किंतु ऐसा व्यवहार सावधान२ नीतिज्ञ पुरुषों का ही होता है ।
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बदी१ बधि२ न मारिये, नेकी पर न निवाज३ ।
तो रज्जब न्याय न नीति कछु, धुंध४ मार का राज ॥१५॥
अधिक२ बुराई१ करने पर अपने अनुकूल व्यक्ति को नहीं मारा जाता और भलाई करने पर भी साधारण व्यक्ति पर कृपा३ नहीं की जाती तब वहां न्याय-नीति कुछ नहीं है, अंधेर४ और मार काट का राज्य है वा धुन्धु राक्षस के राज्य के समान मार काट का राज्य है, अनीति के कारण ही कुवलाश्व ने इसे मारा था, इसी से कवलाश्व धुन्धुमार कहते हैं ।
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रज्जब रोष अनीति परि, नीति माँहिं रस१ रंग२ ।
आदि अन्त मध्य इस मतै३, सत पुरुषों का अंग४ ॥१६॥
अनीति पर क्रोध करते हैं । नीति में आनन्द१ मानते हैं । और प्रेम२ करते हैं, जीवन के आदि, मध्य और अन्त से इसी विचार३ में रहते हैं, यही सत्पुरुषों का लक्षण४ है ।
(क्रमशः)

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